रोजगार की व्यापक समस्या पर काबू पाने के मकसद से लागू की गई महत्त्वाकांक्षी योजना मनरेगा आज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही है। यह कानून मजदूरों के पलायन को रोकने के उद्देश्य से लागू किया गया था, ताकि उन्हें अपने गांव-घर के आसपास रोजगार मिल सके। लेकिन सही क्रियान्वयन के अभाव में लोगों को इसका लाभ नहीं मिल रहा।
इस कानून के अंतर्गत मजदूर को सौ दिन का रोजगार सुनिश्चित किया गया है और रोजगार नहीं होने के एवज में सरकार द्वारा मजदूरों को बेरोजगारी भत्ता देने का प्रावधान है। लेकिन इसका सही क्रियान्वयन नहीं होने की वजह से मजदूरों को न तो काम मिल पा रहा है न ही मनरेगा से निर्मित सिंचाई-कूप या तलाब का उपयोग हो रहा है। दरअसल, ‘बिचौलिया प्रथा’ के हावी होने के कारण सिंचाई-कूपों को सिंचाई के उद्देश्य से निर्मित नहीं किया गया, बल्कि ठेकेदारी के उद्देश्य से जहां-तहां इनका निर्माण कर दिया गया है।
यह सब प्रशासनिक अधिकारियों की लापरवाही या मिलीभगत से संभव हुआ है। मनरेगा कानून के तहत योजना-स्थल का चुनाव गांव में ग्राम-सभा के माध्यम से करना है, लेकिन ग्राम-सभा कई बार सिर्फ कागजों में ही होती है। मनरेगा मजदूरों का पलायन रोकने के उद्देश्य से बनाई गई थी। लेकिन यह पलायन आज भी जारी है। इस कानून तहत मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी सरकार द्वारा जितनी तय की गई है, मजदूरों को उतनी नहीं मिलती।
बीस-तीस प्रतिशत मजदूरी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। हरेक साल मनरेगा का सामाजिक अंकेक्षण करने का प्रावधान है, लेकिन अधिकारियों की मिलीभगत से भ्रष्टाचार के मामले सामने नहीं आते। मजदूर भी अब मनरेगा में काम करने से कतराते हैं, क्योंकि समय पर मजदूरी का भुगतान नहीं होता है और उन्हें पोस्ट आॅफिस, बैंक और प्रखंड कार्यालय का चक्कर लगाना पड़ता है। इस मसले पर समय रहते सरकारों को चेतने की आवश्यकता है और मनरेगा जैसी महत्त्वपूर्ण योजना को भ्रष्टाचारमुक्त कर धरातल पर उतारा जाए, ताकि ग्रामीण विकास के साथ-साथ मजदूरों को अपने गांव में ही रोजगार उपलब्ध हो सके।
’प्रताप तिवारी, सारठ, झारखंड</p>