यानी जिस समाज और देश में औरतों को बराबरी का हक दिया जाता है और उन्हें आदर की दृष्टि से देखा जाता है और उन्हें समुचित सम्मान दिया जाता है, वही समाज और देश उन्नति करते हैं, वे ही एक आदर्श देश और समाज कहलाने के योग्य होते हैं। हमारा संविधान भी सभी समुदायों को यह स्वतंत्रता देता है कि वे अपनी धार्मिक परंपराओं को बिना किसी बाधा के चलाते रहें।

इसके अलावा, संविधान सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार भी देता है। यानी देश के नागरिकों में चाहे वे किसी भी धर्म, जाति या लिंग के हों, उनमें कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।

इस स्थिति में जब हमारी धार्मिक पुस्तकें संविधान, सुप्रीम कोर्ट आदि सभी संवैधानिक संस्थाएं यह पुरजोर और यथेष्ट प्रयास कर रहीं हैं कि दुनिया के अन्य सभ्य देशों की तरह ही भारत में भी यहां की महिलाओं को सबरीमला जैसे मंदिरों और सभी मस्जिदों में भी जाने की स्वतंत्रता मिले तो इसमें व्यवधान क्यों लगाया जा रहा है? क्या हमें कानूनसम्मत, न्यायोचित और मानवोचित बातों की भी कुछ धर्मभीरु और अंधविश्वासी पाखंडियों की जिद की वजह से त्याग देना चाहिए?

अगर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमला के अयप्पा मंदिर में औरतों को प्रवेश करने की इजाजत दे दी, तो उसका निर्णय बिल्कुल मानवीय और न्यायोचित है। वैसे भी महिलाएं पुरुषों की जननी हैं, जो अपने शरीर के अंश और कतरे से पुरुषों को हजारों असाध्य कष्ट सह कर जन्म देती हैं और उन्हें पाल-पोस कर बड़ा बनाती हैं। कितने दुख और अफसोस की बात है कि जो पुरुष पुत्र के रूप में जन्म लेते हैं, उनकी सेवा-सुश्रुषा से पलते-बढ़ते हैं, वही अपनी मां को मंदिर में जाने से रोकते हैं,।

यह कृत्य कृतघ्नता की पराकाष्ठा है! अगर सर्वशक्तिमान ईश्वर, अल्लाह, गॉड- सभी एक ही परम पिता के रूप हैं और जब गिरजाघरों और चर्चों में औरतें बेरोक-टोक आ-जा सकतीं हैं, तो फिर मंदिरों में देवता के दर्शन से और मस्जिदों में नमाज पढ़ने से वे वंचित क्यों रहें? यह देश न्याय, समता, मानवीय आधार पर ही चलना चाहिए। इसी में इसकी उन्नति और सम्यक विकास अंतर्निहित है।
’निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद, उप्र

सृजन के साथ

विगत साल पूरी मानवता खतरे में पड़ गई थी, हालांकि खतरा अभी टला नहीं है। जीवन चारदिवारियों में कैद हो गई थी। क्या कैदी, क्या आम, क्या खास सभी घरों में नजरबंद हो गए थे। सामाजिक और शारीरिक दूरी बढ़ गई थी, लेकिन मनुष्य ने त्रासदी में भी अवसर की तलाश की और डट कर मुकाबला किया।

इस त्रासदी में हमें आर्थिक मार झेलनी पड़ी, मजदूर बेरोजगार हुए, कल कारखाने बंद हुए, लोग मारे गए, लेकिन सेवा भाव में कमी नहीं हुई। यही मानवता की पहचान और मूल्य भी है। लाख मुसीबत आ जाए, हमें निराश या हताश होने की जरूरत नहीं, बल्कि और डट कर मुकाबला करना चाहिए।

अब नए साल में हमें संकल्प लेना चाहिए कि जो कार्य किसी कारणवश नहीं हो पाया, उसे पूरा करें और हमेशा सृजनात्मक कार्य को आगे बढ़ाएं। इससे अपना, समाज और देश-दुनिया का भी भला होता है।

नए साल का मतलब केवल कैलेंडर बदल जाना नहीं है, बल्कि जीवन में भी बदलाव और सुधार हो। स्वमूल्यांकन हो अपने कामों का और उनके परिणामों का। अगर आशानुकूल परिणाम नहीं या रहे, तब देखना चाहिए कि क्या त्रुटि रह गई। उसे पूरा किया जाए या फिर अपना कार्य क्षेत्र बदला जाए।
’प्रसिद्ध यादव, बाबूचक, पटना, बिहार