सांप्रदायिक विष वमन कोई अचानक या पहली बार नहीं हो रहा है। संघ, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल आदि अपने जन्म के समय से ही भारत के संविधान की उद्देशिका में दिए गए मूल्यों से सहमत नहीं रहे। वे समय-समय पर इसी प्रकार की सांप्रदायिक अलगाव और नफरत भरी बातें करते रहे हैं। पहले कुछ सीमाओं में रह कर जो करते थे, वही आज सत्ता की ताकत के साथ अधिक उग्रता से कर रहे हैं।
धर्मनिरपेक्षता की झंडाबरदार कांग्रेस दिखावे के लिए संघ परिवार का विरोध रस्म-अदायगी के लिए आधे-अधूरे मन से करती रही, पर अपने लिजलिजेपन के कारण वह प्रभावशाली ढंग से विरोध नहीं कर सकी। जवाहरलाल नेहरू के बाद संवैधानिक मूल्यों में सच्ची आस्था रखने वाले, धर्मनिरपेक्षता में भरोसा रखने वाले कांग्रेसी नहीं रहे। इसीलिए जब भाजपाई कांग्रेस को छद्म धर्मनिरपेक्ष कहते हैं तो गलत नहीं कहते। इस समय तो कांग्रेस ढंग का विरोध करने की हैसियत ही खो बैठी है।
वामपंथी जो सार्थक विरोध कर सकते थे, वे लगभग हाशिये पर पहुंच गए हैं। समाजवादी बचे नहीं, केवल पार्टी का नाम समाजवादी रखने से थोड़े ही कोई समाजवादी हो सकता है। राजनीतिक मैदान में तो संवैधानिक मूल्यों की पैरवी असरदार ढंग से करने वालों का अकाल जैसा ही है। इस कमी को बाजार ने अराजनीतिक माहौल बना कर और मदद पहुंचाई है। जो लोग इस समय हिंदू राष्ट्रवाद की आहट से पनपे हुड़दंग और हमलों से परेशान हैं और भारत की बहुलतावादी, विविधता वाली संस्कृति को नष्ट होने से बचाना चाहते हैं, उन्हें यह स्पष्ट होगा कि नीम न मीठी होय चाहे सींचो गुड़-घी से।
कोई भाजपा सरकार से यह उम्मीद करता हो कि वह संवैधानिक मूल्यों के अनुसार काम करेगी तो यह गलतफहमी ही होगी! जिस तरह गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने दंगों के दौरान एक वर्ग विशेष को गुस्सा निकालने देने के पर्याप्त मौके दिए थे, उसी तरह प्रधानमंत्री रहते हुए वे आरएसएस, विहिप, बजरंग दल सहित और भी सांप्रदायिक ताकतों को ताकत मुहैया कराते रहेंगे!
भाजपा को नहीं रोका गया तो आगामी चुनाव में पूंजीपतियों के वरदहस्त और उनके भोंपू मीडिया की मेहरबानी से अगर यह दो तिहाई बहुमत से अनेक प्रदेशों में आ गई तो फिर भारत के संविधान की दुहाई देने का मौका भी नहीं रहेगा!
इस समय सौभाग्य से देश के महत्त्वपूर्ण, प्रतिष्ठित और जागरूक लेखकों, फिल्मकारों, वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों ने समाज की पीड़ा को महसूस कर बीड़ा उठाया है, क्या इस पहलकदमी को भी सत्ता का बुलडोजर रौंद कर चलता रहेगा और यह समाज अनसुना कर देगा? इस प्रश्न में ही उम्मीदें और नाउम्मीदें दोनों शामिल हैं। (श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल)
……………………………………………………………………………………..
नाबालिग अपराधी
सतीश सिंह का लेख ‘किशोर अपराध और लाचार कानून’ (29 अक्तूबर) के अंतर्गत पेश किए गए आंकड़े वाकई में किसी भी समाज को डराने वाले हैं और कोई भी सभ्य कहे जाने वाला समाज या देश इसे स्वीकार नहीं कर सकता। अगर किशोरों द्वारा किए गए संगीन अपराध के बारे में विचार किया जाए तो अब निश्चित रूप से वह समय आ गया है, जब भारत में बालिग होने की आयु सीमा पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
अमेरिका में बच्चों को उनके अभिभावक छह वर्ष की अवस्था में स्कूल भेजते हैं। लेकिन भारतीय अभिभावक जब बच्चे तुतलाना शुरू करते हैं यानी ढाई से साढ़े तीन वर्ष की अवस्था में ही उन्हें स्कूल भेज देते हैं। जब मां-बाप ही उन्हें समय से पहले युवा करने में लगे हैं तो यह आवश्यक हो जाता है कि किशोरों के बालिग होने की आयु सीमा में भी कमी की जानी चाहिए। ऐसे में उक्त बिंदु पर पुनर्विचार और आवश्यक हो जाता है, जब मुंबई हमले के मुख्य आरोपी कसाब के बालिग होने की बहस उठ चुकी हो।
आज टेलीविजन, इंटरनेट और मोबाइल के संपर्क में आकर बच्चे समय से पहले युवा हो रहे हैं और उन्हें लगभग बारह से चौदह वर्ष की अवस्था में हर बात की सुस्पष्ट जानकारी मिल चुकी होती है। हमारी संसद और सरकार को चाहिए कि अतिशीघ्र बालिग होने की आयु सीमा को कम करे, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब हमारा संविधान आतंकियों तक को भी सजा देने में स्वयं को असमर्थ पाएगा। (धर्मेंद्र प्रताप सिंह, लखनऊ)
…………………………………………………………………………………….
इंसानियत का धर्म
देश की फिजा में सांप्रदायिकता का रंग घुलता जा रहा है, वह चाहे चुनावी राजनीति हो या किसी मामले को सांप्रदायिक रूप देना, कुछ लोग इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं। लेकिन इस बीच भोपाल की घटना ने इंसानियत को जिंदा कर दिया है, भोपाल में रहने वाले संतोष की अचानक मृत्यु हो गई और उसकी पत्नी और मासूम बच्ची का कोई सहारा न रहा और न ही संतोष का अंतिम संस्कार करने को कोई तैयार था। इसी बीच उसके दोस्त रज्जाक ने सारी जिम्मेदारी उठाई और संतोष का अंतिम संस्कार किया।
अब सवाल यह है कि धर्म के नाम पर हम कब तक लड़ते रहेंगे, वहीं इस छोटी-सी घटना ने हमें धर्म से बंधी जंजीरों से छुड़ाने की कोशिश की है, हम सभी इंसान हैं और इंसानियत ही हमारा सबसे बड़ा धर्म होना चाहिए। क्या हमें कुछ कुंठित मानसिकता वाले लोगों के कारण अपने देश का माहौल बिगाड़ना चाहिए। लेकिन क्या हम ऐसे हैं? यह एक बड़ा सवाल है। (मो. अफसार, दिल्ली विवि, दिल्ली)
………………………………………………………………………………………
महंगाई की मार
अच्छे दिनों की बात करने वाली मोदी सरकार पर से अब लोगों का विश्वास कम होता नजर आ रहा है। कभी प्याज तो कभी दाल सरकार के लिए मुसीबत खड़ा कर रही है। 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदीजी ने महंगाई को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार पर हमला बोला था और राजग की वापसी होने पर अच्छे दिनों के आने का वादा किया था। लेकिन प्याज और दाल की कीमतों में बढ़ोतरी ने मोदी सरकार के वादे को फुस्स कर दिया।
जब पहले से ही दाल की कीमत बढ़ने की आशंका जता दी गई थी तो क्यों नहीं सही समय पर जरूरी कदम उठाए गए। जब दाल आम लोगों के गले की फांस बन गई, तब इस पर जरूरी कदम उठाए जा रहे हैं। अब तो लोग मोदीजी से पूछने लगे हैं क्या इन्हीं अच्छे दिनों का इंतजार करना था? (मीना बिष्ट, पालम, नई दिल्ली)
लगातार ब्रेकिंग न्यूज, अपडेट्स, एनालिसिस, ब्लॉग पढ़ने के लिए आप हमारा फेसबुक पेज लाइक करें, गूगल प्लस पर हमसे जुड़ें और ट्विटर पर भी हमें फॉलो करें