बिहार में जनता दल (एकी)-राष्ट्रीय जनता दल के गठबंधन वाली सरकार ने देशी के बाद अब विदेशी शराब पर भी पूरी तरह से पाबंदी लगा दी है। इसका वायदा जनता दल (एकी) ने चुनावी घोषणापत्र में किया था। आम तौर पर चुनावी घोषणापत्र में बहुत सारे वायदे किए जाते हैं, लेकिन अक्सर जब इन पर अमल करने की बात आती है तो सत्तारूढ़ दल और राजनीतिक कार्यपालिका किंतु-परंतु कहते हैं, तरह-तरह के बहाने बनाते हैं और टालमटोल करते हैं। अब नीतीश कुमार ने शराबबंदी का अपना वायदा ईमानदारी पूर्वक निभाया है तो यह बहुत अच्छी बात और एक स्वागतयोग्य कदम है। अक्सर सरकारें शराब से मिलने वाले भारी राजस्व को खोना नहीं चाहती हैं और इसे अपनी बड़ी मजबूरी बताती हैं। शराबबंदी के विरोध में एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि पूर्ण शराबबंदी संभव ही नहीं है, क्योंकि चोरी-छिपे और गैर-कानूनी तौर से अन्य राज्यों से तस्करी के जरिए शराब पहुंचाई जाती है और घरों में कच्ची शराब बनाई जाती है। कहने वाले यह भी कहते हैं कि पीने वालों को रोका ही नहीं जा सकता, वे कहीं न कहीं से जुगाड़ कर ही लेते हैं। लेकिन ऐसे तर्क और कुतर्क के बहाने शराबबंदी से कन्नी काटना कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता।

शराब के कारण व्यक्ति और परिवार किस तरह बर्बाद होते हैं, स्वास्थ्य का कितना नुकसान होता है, बच्चों और महिलाओं के साथ किस तरह हिंसा होती है और समाज में किस तरह अपराध फलते-फूलते हैं इसे जानने-समझने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी होगी। उत्तराखंड में 1960 के दशक से शराबबंदी आंदोलन हुए हैं और कितने ही लोगों (सुंदरलाल बहुगुणा, मान सिंह रावत, राधा बहन) ने इन आंदोलनों में अपना पूरा जीवन खपा दिया। गांवों में महिला संगठनों ने कितने ही आंदोलन किए, धरने दिए, जेल यात्राएं कीं। तब भी सरकार की कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। यह बड़ी विचित्र बात है कि अधिकतर राज्यों में सरकार एक तरफ मद्य निषेध का प्रचार करती है जबकि दूसरी तरफ शराब की नीलामी और इससे प्राप्त होने वाले राजस्व में गहराई से भागीदार रहती है। मजेदार यह है कि जिला स्तर पर जिलाधिकारी शराब की नीलामी में प्रमुख भूमिका निभाते हैं और मद्य निषेध समिति की अध्यक्षता भी करते हैं।

बिहार में पूर्ण शराबबंदी पर अमल कितना हो पाता है यह देखने की बात है, लेकिन सरकार का नैतिक दायित्व है कि समाज के लिए हानिकारक चीजों को हतोत्साहित करे और उपयोगी चीजों को प्रोत्साहित करे। शराब की उपलब्धता कम/ कठिन होने से कुछ तो असर होगा ही। (कमल कुमार जोशी, अल्मोड़ा)
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समान नियम
अगर कोई विवाहित पुरुष पासपोर्ट के लिए आवेदन करता है तो पति-पत्नी के संयुक्त हलफनामे की आवश्यकता नहीं होती पर अगर कोई विवाहित महिला पासपोर्ट के लिए आवेदन करती है तो उसे संयुक्त हलफनामे की जरूरत पड़ती है। पति-पत्नी दोनों का एक साथ कहीं जाना आवश्यक नहीं होता। विचारों में भिन्नता होने से कई पुरुष महिला के पासपोर्ट आवेदन के लिए संयुक्त हलफनामे पर हस्ताक्षर नहीं करते। यात्रा की जल्दबाजी में पति के असहयोग से कई महिलाएं पति के जाली हस्ताक्षर कर पासपोर्ट ले लेती हैं। आज विवाह सात जन्मों का साथ नहीं है। पत्नी की किसी सोच पर पति की कोई रुकावट नहीं होनी चाहिए। पासपोर्ट में महिला और पुरुष दोनों के लिए नियम समान होने चाहिए। पासपोर्ट हरेक को खुद के बयान पर, बिना किसी बाधा के सहजता से उपलब्ध होना चाहिए। (जीवन मित्तल, मोती नगर, दिल्ली)

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जेएनयू की जगह
केंद्र सरकार द्वारा जारी हालिया सूची में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को मिले प्रथम स्थान ने एक बार फिर इसकी महत्ता, उत्कृष्टता और उपयोगिता को प्रमाणित किया है। जो छवि पिछले कुछ घटनाक्रमों से क्षतिग्रस्त दिख रही थी उसकी वास्तविकता हमारे सामने है और इसके महत्त्व को समझने की आवश्यकता भी। युवा किसी भी देश की रीढ़ होते हैं। उनके विचार, आचार और व्यवहार देश का भविष्य तय करते हैं। इसलिए उनके विचारों को नकारने या बरगलने की बजाय उनके असंतोष के कारणों की पड़ताल, उनका निवारण करना बहुत जरूरी है। हां, किसी भी परिस्थिति में राष्ट्र की एकता, अखंडता और सार्वभौमिकता पर चोट बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए और ऐसे किसी भी प्रयास के साबित होने पर उचित कार्रवाई की जानी चाहिए लेकिन महज दोषारोपण से परिणाम तक पहुंचना घातक है।

नकारात्मक भावनाओं को हवा कोई भी दे, वे नुकसान सबका करती हैं। किसी भी विचारधारा का लक्ष्य मानव जाति के लिए सुखद जीवन होना चाहिए और अगर कोई मार्ग इस लक्ष्य से भटकाए तो वह सही हो ही नहीं सकता। अपने साथ औरों की विचारधारा का सम्मान, उनके लिए सहिष्णु भाव रखना सभी के लिए अनिवार्य होना चाहिए किसी भी एक पक्ष के लिए नहीं। अंतत: प्रतिष्ठित संस्थानों की गरिमा को अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी उनसे जुड़े सभी लोगों की है चाहे वे विद्यार्थी हों, शिक्षक, प्रशासन अथवा सरकारी व्यवस्था से जुड़े लोग। (श्वेता शर्मा, कोलकाता)

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मुंह चिढ़ाती गंदगी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान को देश के रेलवे स्टेशनों पर फैली गंदगी मुंह चिढ़ा रही है।साफ-सफाई दरअसल, संस्थाओं की मुस्तैदी का मामला है। मगर कचरे के निपटान, मलबा हटाने, झाड़ू-बुहारी जैसे काम भी अलग-अलग प्राधिकारों की जिम्मेदारी मान कर टालने की जैसे आदत बन चुकी है। प्रधानमंत्री की बार-बार की अपीलों के बावजूद अगर संस्थाओं में इस समस्या के प्रति गंभीरता नहीं आ पा रही, तो उप-कर से जुटाए पैसे से इस पर काबू पाना कितना संभव हो पाएगा, कहना मुश्किल है।

रेलवे देश की सबसे बड़ी परिवहन सेवा है, उसके आय-व्यय को लेकर अलग से बजट पेश होता है। ऐसा भी नहीं कि वह घाटे में चल रहा कोई उपक्रम है। मगर वह साफ-सफाई में फिसड््डी साबित हो रहा है तो उसकी बड़ी वजह भ्रष्टाचार और काहिली है। स्वच्छता को लेकर उसके सामने मेट्रो रेल सेवा की कार्यप्रणाली एक उदाहरण है। जब तक रेलकर्मियों के कामकाज के तरीके में बदलाव नहीं आएगा, गाड़ियों, पटरियों और स्टेशनों पर साफ-सफाई को लेकर बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। (आबिद कुरैशी, जाकिर नगर, दिल्ली)