राष्ट्रवाद की मनचाही परिभाषा तय कर जिसे चाहे राष्ट्रद्रोह के प्रकरण में फंसाने और ‘भारत माता की जय’ बोलने की हिंसक जिद की करतूतें लगातार हमारे सामने आ रही है। लेकिन जो लोग राष्ट्र की आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए, उन्हें याद करने की फुर्सत न तो भाजपा सरकार को है और न ही उनके मागदर्शक आरएसएस को। इसके उलट वे भ्रम जरूर फैलाने में लगे है कि भगत सिंह ने फांसी पर चढ़ते हुए ‘भारत माता की जय’ का नारा दिया था। शहीद भगत सिंह क्रांतिकारी विचारधारा में विश्वास करते थे और उन्होंने फांसी पर चढ़ते समय ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाया था।
तेईस मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर चढ़ाया गया था। उनकी शहादत को याद करने के अर्थ हमारी विविधता भरी साझी संस्कृति की विरासत और स्वतंत्रता संग्राम की बलिदानी गाथा की महत्ता और उन मूल्यों को समझना भर नहीं है, बल्कि राष्ट्र जो जनसमुदाय का हेतु है, को दृढ़ता और सक्षमता देने के लिए आज जो वांछित है, उसे करने का संकल्प भी लेना है। लेकिन मोदी सरकार के संकल्प तो कुछ और ही जान पड़ते हैं। उन्हें जन और देशहित से कहीं ज्यादा विदेशी और कॉरपोरेट पूंजी की चिंता है। उसका विरोध करने वालों को ‘देशद्रोही’ की संज्ञा देने में कुछ लोगों को शर्म नहीं आती है।
धर्मनिरपेक्ष, समतामूलक और शोषणमुक्त समाज के जिस विचार को लेकर भगत सिंह ने बलिदान दिया, आज की सरकार उसकी उलटी दिशा में जा रही है। उनकी राह पर चलने की कोशिश करने वालों को अग्रेजों के जमाने के ‘देशद्रोह एक्ट’ के तहत फंसा रही है। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोधरत छात्र रोहित वेमुला से स्कॉलरशिप छीन कर उसे आत्महत्या के लिए मजबूर करने के हालात बना दिए गए। जो विद्यार्थी विश्वविद्यालय और पढ़ाई के क्षेत्र में दक्षिणपंथी रुझानों को फैलाने की मोदी सरकार की नीति के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें एक-एक कर निशाने पर लिया जा रहा है। राष्ट्रवाद की मनमानी परिभाषा न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए चुनौती बन गई है, बल्कि मोदी सरकार के अनेक कृत्य नाजी फासीवाद की याद दिला रहे हैं।
हमारा संविधान जहां हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार देता है, वहीं भाजपा सरकार राष्ट्रवाद की मनमानी परिभाषा थोपने पर उतारू है। स्वाधीनता क्या राष्ट्रीय संदर्भ में ही अर्थ रखती है या उसका विमर्श अंतरराष्ट्रीयतावाद तक जाता है? हमारे सरोकार अपने और पड़ोसी तक सीमित रहेंगे या वे दुनिया के सरोकारों से जुड़ेंगे? आज सरकार ने इस पूंजीवादी वैश्वीकरण के लिए आम जनता के सुलभ नागरिक अधिकारों को छीनने के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख छोड़ी है। उसे इसके लिए राष्ट्रीय हितों की बलि लेने में भी कतई हिचक नहीं है। बल्कि वह इसके आड़े आने वालों को देशद्रोही घोषित कर रही है। अपने इरादों को पूरा करने के लिए सांप्रदायिकता का वीभत्स खेल भी जम कर खेला जा रहा है। (रामचंद्र शर्मा, तरूछाया नगर, जयपुर)
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जीवन का दायरा
जीवन कभी इतना संकुचित नहीं होता। मां-बाप, भाई-बहन, समाज-देश और अधिकार-कर्तव्य जैसे अनेक पहलू इसे विस्तार देते हैं। मगर जब इस विस्तृत क्षेत्र में फैले जीवन को महज एक ‘पुरुष मित्र’ या ‘महिला मित्र’ तक सीमित कर दिया जाता है, तब यह संकुचित हो जाता है। फिर इस संकुचित जीवन के आधार उक्त मित्र की बेवफाई सामने आते ही कुछ नहीं बचता। वह संकुचित जीवन घुटन में बदल जाता है और आखिर किसी पंखे से लटक कर खत्म हो जाता है। अभिनेत्री प्रत्यूषा बनर्जी की आत्महत्या इसी संकुचित होते जा रहे जीवन की परिणति का एक संकेत है। यह कोई सामान्य बात नहीं, हमें इस पर गहराई से विचार करना होगा। खासतौर से महानगरों में एक कमरे में बंद जीवन जीने वालों को। (अंकित दूबे, जेएनयू, नई दिल्ली)
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पाबंदी की परतें
बिहार सरकार का शराब पर प्रतिबंध लगाने का कदम अच्छा है, लेकिन विदेशी शराब पर कोई लगाम नहीं लगाई गई है। क्या अंग्रेजी शराब मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है? फिर यह भी देखना है कि इस फैसले को लागू करने का स्वरूप क्या है। हमारे देश में अच्छे कानून तो बन जाते हैं, पर उनका पालन कराने के लिए कोई खास व्यवस्था नहीं होती है। गुजरात में 1960 से ही शराब के उत्पादन के साथ ही बिक्री पर भी सजा का प्रवधान है। लेकिन हम जानते हैं कि आज गुजरात के किसी भी इलाके में शराब आसानी से मिल जाती है और वहां अभी तक इस कानून के तहत किसी को भी सजा नहीं हुई है।
गुजरात के अलावा केरल, नगालैंड, मणिपुर के कुछ स्थानों पर और लक्षद्वीप में भी शराब प्रतिबंधित है। लेकिन परिणाम अच्छे नहीं रहे। इसका मुख्य कारण है कि घोषणा करके फोटो खिंचवाई जाती है और थोड़े दिनों बाद हालात पहले जैसे ही हो जाते हैं। अगर शराब को पूरी तरह से देश से दूर करना है तो राष्ट्रीय स्तर पर पहल करनी होगी। केंद्र सरकार को कानून बना कर सभी राज्यों में इसके उत्पादन पर ही रोक लगानी चाहिए। लेकिन इस काम के लिए साहस और इच्छाशक्ति की जरूरत होगी। (सूरज कुमार बैरवा, सीतापुरा, जयपुर)
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हाशिये पर हिंदी
देश में हिंदी कि हालत उस मां की तरह है जिसे कहने को तो मां कहा जाता है, पर वक्त-बेववक्त घर के हरेक व्यक्ति उसी मां को लताड़ता रहेता है। आज हिंदी भाषा को भाषा के आधार पर नहीं, एक विचारधारा के आधार पर देखा जाने लगा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के समाज कल्याण विभाग जिससे सबको सदैव यही उम्मीद रहती है कि यहां किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं होगा, लेकिन समाज कल्याण विभाग में उच्च शिक्षा लेने के लिए प्रवेश परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही अनिवार्य है। ऐसे में यह विभाग भी हिंदी-भाषी विद्यार्थियों को न केवल समाज कल्याण विभाग में उच्च शिक्षा से रोकता है, बल्कि हिंदी भाषी विद्यार्थियों को समाज कल्याण में योगदान देने की इच्छा को भी मारता है। ऐसे में हिंदी भाषी लोगों को अन्य विभागों से क्या उम्मीद होगी? (प्रीति तोमर, दिल्ली)