‘पंचायतों में सुधार का आधार’ (17 दिसंबर) में हालात का सटीक विवरण दिया गया है। इसके अलावा, कुछ बुनियादी मुद्दे भी ध्यान देने के काबिल हैं। ग्राम पंचायतों और ग्राम सभाओं के माध्यम से गांवों का काम जब बुनियादी उद्देश्यों की उलटी दिशा से किया जाएगा तो जाहिर है नतीजा भी उलटा ही होगा। भारत के संविधान की धारा 40 के मुताबिक राज्य सरकार पंचायतों को ऐसी शक्तियां प्रदान करेगी, जिससे वे स्वशासन की स्वायत्त ईकाई के रूप में काम कर सकें। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि पंचायतों और ग्राम सभाओं को अपने फैसलों से चलने के अवसर लगभग शून्य हैं। यानी प्रावधान हैं, लेकिन कागजों में।

जगह-जगह लिखा रहता है कि ग्राम सभाओं और पंचायतों द्वारा किए गए फैसले अगर जनहित में नहीं हों तो उन्हें विहित अधिकारी बदल सकता है। क्या यह नहीं कहा जा रहा है कि गांव का हित गांव वालों से ज्यादा वह अधिकारी समझता है जो उस गांव की बोली, लोगों के आपसी संबंध, सुख-दुख, कुएं-बावड़ी, खेत, गांव के भूगोल आदि नहीं जानता? ग्राम सभा की बैठक के संबंध में यह दर्ज है- ‘ग्राम सभा के सम्मिलन के लिए एक पंचमांश से अन्यून संख्या आवश्यक है।’ अगर इस तरह लिख देते कि ग्राम सभा की बैठक के लिए सौ में से बीस लोगों का होना जरूरी है तो लोगों को समझ में आ जाता। लेकिन अगर लिख देते तो उन पर नासमझ होने, जागरूक न होने, रुचि न लेने का इल्जाम लगाना कैसे संभव होता! उनकी लगाम सरकारी कर्मचारी अपने हाथ में कैसे रख पाते! अधिनियम का यह सरलतम वाक्य है जो एक लोक प्रशासन के अध्यापक और जिला स्तरीय ग्राम स्वराज संस्थान के निदेशक को कोशिश करके याद हो सका। क्या हमारा सरकारी तंत्र ताल ठोंक कर यह नहीं कह रहा है कि किसी में दम हो तो वह विकेंद्रित स्वशासन करके बताए?

अधिनियम में साफ लिखा है कि ग्राम सभा की बैठक का समय और स्थान गांव वालों की सुविधा के अनुसार हो, यह ग्राम सभा तय करेगी। मदद के लिए ग्राम सभा में सरकारी प्रावधान, योजनाओं और नियम आदि बताने के लिए स्थानीय कर्मचारियों का जाना अपेक्षित है, इसलिए ग्राम सभा का आयोजन कर्मचारियों की सुविधा के अनुसार दिन में तब किया जाता है, जब गांव के मजदूर या किसान अपने काम में व्यस्त रहते हैं। फिर यह आरोप भी कि लोग तो ग्राम सभा में आते ही नहीं हैं। गांव वालों की सुविधा से रात में ग्राम सभा करने की बात करते ही तर्क दिए जाते हैं कि दिन भर की थकावट के बाद रात में कौन आएगा! जो आएंगे भी, वे शराब पीकर हंगामा करेंगे आदि। मध्यप्रदेश के सागर, पन्ना, होशंगाबाद, सीहोर सहित सात-आठ जिलों के कुछ गांवों में रात नौ बजे से बारह-एक बजे तक आसानी से ग्राम सभा की बैठकें आयोजित कर लेने के बाद कोई भी बहाना कम से कम मुझे और मेरे साथियों को समझ में नहीं आते।

ग्राम सभाएं प्रभावी क्यों नहीं हैं और कैसे हो सकती हैं, इस पर पुस्तकें लिखी जा सकती हैं, करके भी दिखाया जा सकता है। जरूरत है राज्य की इच्छाशक्ति की और नौकरशाही द्वारा पैदा की जाने वाली बाधाओं को दूर करने की। (श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल)

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बदलाव की बयार

अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन ने कहा था कि लोकतंत्र में इतना आकर्षण होता है कि एक दिन पूरी दुनिया उसे अपनाने के लिए बाध्य हो जाएगी। सऊदी अरब में महिलाओं को वोट डालने और चुनाव लड़ने का अधिकार हाल ही में मिला था, जिसके साथ वहां भी लोकतंत्र ने दस्तक दे दिया है। कुछ समय पहले वहां नगर निकाय चुनावों में उन्नीस महिला प्रत्याशियों की जीत हुई। गौरतलब है कि सऊदी अरब में धार्मिक कानून लागू है, जहां लोकतंत्र निकायों तक सीमित है।

सऊदी अरब के पूर्व राजा अबदुल्लाह बिन अजीज अल सऊद की रुचि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में थी, जिस कारण उन्होंने 2005 में स्थानीय निकायों का शासन नागरिकों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंपने, महिलाओं को मतदान और चुनाव लड़ने का अधिकार देने का निर्णय किया था। पूर्व राजा के दिंवगत होने के बाद उनके उत्तराधिकारी सलमान बिन अब्दुल अजीज अल सऊद ने उनका सपना पूरा किया। 2015 के अगस्त में महिलाओं को ये दोनों अधिकार दिए गए। बहरहाल, निकाय चुनाव के नतीजे लोकतंत्र में आस्था रखने वालों को खुश कर रहे हैं। चुनाव में 980 महिलाएं मैदान में थीं। इनमें से उन्नीस की जीत हुई है। यह संख्या कम है, पर याद रखना होगा कि वहां महिलाओं को पहली बार चुनावी अधिकार मिला है। इसलिए यह बड़ी उपलब्धि है। (पवन मौर्य, वाराणसी)

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काव्यात्मक मिठास

मनोज कुमार ने अपने आलेख ‘अधूरे सपनों के सामने’ (दुनिया मेरे आगे, 17 सितंबर) में जिन सपनों को मूर्त करने का प्रयत्न किया है, वे समाज के एक बड़े वर्ग को उद्वेलित करते हैं। लेकिन जिस संवेदना, सहानुभूति और सूझ-बूझ का परिचय उनके आलेख में मिलता है, वह असामान्य है। यथार्थ के धरातल पर टिके हुए इस आलेख में एक अनूठी काव्यात्मक सुंदरता और मिठास है। इस सुंदर आलेख के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं। (अरुणेंद्र नाथ वर्मा, नोएडा)

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बेटी की जगह

यों कन्या भ्रूणहत्या एक जघन्य अपराध है। फिर भी हमारे देश में लड़कियों को दुनिया में आने से पहले ही कोख में मार दिया जाता है। यह तब भी बना हुआ है जब लड़कियां लड़कों से कई गुणा आगे साबित हो रही हैं। आज सारी प्रतियोगिता परीक्षाओं में लड़कियां अव्वल रहती हैं। जितने बड़े ओहदे हैं, सभी जगह पर लड़कियां मौजूद हैं। भ्रूणहत्या के खिलाफ कड़े कानून हैं। फिर भी हकीकत छिपी नहीं है। बिना किसी कानूनी खौफ के लिंग जांच और भ्रूणहत्या का कारोबार करने वालों के अलावा समाज में जिस तरह महिलाओं के खिलाफ एक द्वेषभाव बैठा हुआ है, बिना उसे खत्म किए इस आपराधिक प्रवृत्ति में कमी नहीं लाई जा सकेगी। (कुमार चंद्रमणि झा, पटना कॉलेज, पटना)