साल 2015 जाते-जाते हमें बहुत कुछ सीख दे गया। खासकर पर्यावरण के प्रति क्या जिम्मेवारी होनी चाहिए इसके प्रति हमें आगाह और सजग कर गया। प्राकृतिक आपदाओं और ग्लोबल वार्मिंग की बढ़ती समस्या ने बीते साल दुनिया को कई बार चेतावनी देने की कोशिश की। चाहे नेपाल में आए भूकम्प की बात करें या साल का अंत होते-होते चेन्नई में आई भीषण बाढ़ की, दोनों ने ही भारी तबाही मचाई। हजारों लोग बेघर हो गए और न जाने कितनों ने अपनों को खोया।

दूसरी तरफ, दिल्ली जैसे शहर पर प्रदूषण का कोप दिखा। धुंध में लिपटी यहां की हवा बीते साल और भी जहरीली हो गई। राजधानी और एनसीआर के कई इलाकों में प्रदूषण का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से दस गुना ज्यादा हो चुका है जिसका सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पड़ेगा। कुछ इसी प्रकार का हाल चीन की राजधानी बीजिंग का भी है, जहां बढ़ती धुंध के कारण रेड अलर्ट जारी करना पडा। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि वहां विदेशों से मंगाई गई हवा की बोतलें बिक रही हैं। मास्क पहने बिना घर से निकलना मुश्किल है। इसके अलावा मौसम में परिवर्तन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बीता साल सबसे गर्म रहा। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 136 साल में धरती इतनी गर्म कभी नहीं रही।

अब सवाल है कि क्या नए साल में कुछ बदलेगा? क्या हम अपनी पिछली गलतियों से सीख लेते हुए पर्यावरण के प्रति जिम्मेवारी समझेंगे? पेरिस में पर्यावरण बचाने की मुहिम को लेकर हुई विभिन्न राष्ट्रों के प्रतिनिधियों की बैठक में कुछ कड़े और सराहनीय फैसले लिए गए। नेताओं ने तो अपना काम किया, अब हम आम लोगों को भी कुछ कड़े कदम उठाने होंगे। हमें भी पर्यावरण बचाने का संकल्प लेना होगा ताकि नया साल सभी के लिए बेहतर हो। (विमल ‘विमर्या’, देवघर, झारखंड)

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जैसे को तैसा
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री या विदेश सचिव अमेरिका सहित अन्य तमाम देशों से कहते आए हैं कि हम आतंकवाद से निपटने के लिए एकजुट होकर सामने आएंगे, लेकिन नवाज सरकार की बातें सिर्फ बातें साबित हो रही हैं। हाफिज सईद, जिसे एक आतंकवादी करार दिया जा चुका है, वह पूरी शानो-शौकत से पाकिस्तान में सभाएं कर जहर उगलता है लेकिन नवाज सरकार उसके खिलाफ कुछ नहीं कर रही है।

इससे एक बात तो स्पष्ट है कि पाकिस्तान भारत के साथ-साथ पूरे विश्व से दोगला व्यवहार कर रहा है। एक ओर वह गले मिल कर कहता है कि हम शांति कायम करना चाहते हैं लेकिन अगले ही पल गले मिलने पर पीठ में छुरा घोंप देता है। लिहाजा, पाकिस्तान के इस दोगले रवैये से निपटने के लिए हमारी सरकार को भी चाहिए कि बयानी तीरों के साथ-साथ अब कमानी तीरों का भी प्रयोग कर पाकिस्तान को र्इंट का जवाब पत्थर से दे। तभी वह दोस्ती और घात का फर्क समझेगा। (पंकज कसरादे ‘बेखबर’, मुलताई, मध्यप्रदेश)

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विभाजित लाभ
इन दिनों अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें दिन-प्रतिदिन गिर रही हैं और लगभग दस साल के निम्नतम स्तर पर हैं। लेकिन इसका पूरा लाभ केंद्र सरकार और तेल कंपनियां बंदरबांट करके उठा रही हैं। वे उपभोक्ताओं को 35-50 दिन बाद तेल के दामों में चंद पैसों की गिरावट का झुनझुना थमा कर वाहवाही लूटने का प्रयास करती हैं। क्या यह सही है?
यदि सरकार कच्चे तेल की कीमतें गिरने का सारा लाभ उपभोक्ताओं को नहीं देना चाहती तो कम से कम इस लाभ को तीन भागों (सरकार, तेल कंपनियों और उपभोक्ताओं) में तो विभाजित करे। इसके लिए एक वाजिब फार्मूला बनाया जाना चाहिए। दाम बढ़ने-घटने दोनों ही दशाओं में यह फार्मूला लागू होना चाहिए। (यश वीर आर्य, नई दिल्ली)

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जमीनी हकीकत
निर्भया कांड के बाद भले ही कठोरतम कानून का निर्माण हुआ हो लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि पिछले तीन साल में इस प्रकार की घटनाओं में कमी होती नहीं दिखाई देती। इसका जिम्मेदार कौन है? हम, हमारा समाज, शासन-प्रशासन, सामाजिक व्यवस्था या हमारी परंपरा और पुरुष वर्चस्ववादी सोच। सच तो यह है कि किसी एक को पूरी तरह जिम्मेदार ठहराना गलत होगा। भारतीय समाज निरंतर नैतिक पतन की ओर अग्रसर है। क्या अपनी सभ्यता-संस्कृति से किशोरों को अवगत कराना हमारा दायित्व नहीं?

एक सभ्य समाज का निर्माण सभ्य व्यक्ति से होता है और व्यक्ति की पहली पाठशाला उसका परिवार ही होता है। पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण, तकनीक का गलत प्रयोग, बच्चों और माता-पिता के बीच संवाद का अभाव, सोशल नेटवर्किंग साइट का अनुचित प्रयोग तथा प्राचीन जीवन मूल्यों से किनारा कर लेना भी इसके कुछ कारण हो सकते हैं। पारिवारिक स्तर से ही संतान को सांस्कृतिक मूल्यों से परिचित कराना आवश्यक है।  (सालिम मियां, एएमयू अलीगढ़)

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यह सुझाव
केजरीवाल की ईमानदारी और समझदारी का सम्मान करती हूं लेकिन मेरे विचार से उन्हें दो बातों पर सचेत रहने की जरूरत है। पहली, अपने आसपास के तथाकथित मित्रों पर विश्वास भले ही करें, अंधविश्वास नहीं। मेरा सुझाव है कि उन्हें आंख-कान खोल कर देखना-सुनना चाहिए। उनके आसपास क्या हो रहा है शायद वे नहीं जानते। उन्हें जानना चाहिए। भुक्तभोगियों से पूछना चाहिए, तभी हम जैसे आम लोग उनके बारे में सही राय पर अटल रह सकते हैं। ठीक उनकी नाक के नीचे क्या-क्या होता है, उससे अनभिज्ञता उनके साफ-सुथरे व्यक्तित्व को शोभा नहीं देती।
दूसरी बात, उनकी बच्चों की-सी उतावली। बच्चों की उतावली का नतीजा तो सभी जानते हैं। घर पर पिता हैं, शायद उन्हीं का अनुभव काम आ जाए! (अनुराधा, नई दिल्ली)