पिछले कुछ दिनों से, विशेषकर मोदी के शासन में आंदोलनों की उग्रता बढ़ती जा रही है। आंदोलन क्यों हिंसक रुख अख्तियार करते जा रहे हैं? क्या शांतिपूर्ण आंदोलन की कोई सुनवाई नहीं हो रही है या उसका संज्ञान सरकार नहीं ले रही है? हिंसा का एक बड़ा कारण अस्तित्व पर संकट का मंडराना है। जब अपना अस्तित्व सवालिया बन जाता है तो इंसान तो क्या, पालतू घरेलू जानवर भी हमलावर बन जाता है। सरकार पूंजीपरस्त हितों को साधने की ऐसी जुंडली में लगी है कि वह प्रभावित पक्ष की होने वाली दुर्दशा पर विचार करने को तैयार नहीं। उसका पक्ष सुनना ही नहीं चाहती। सदियों के संघर्षों के बाद बने श्रम कानूनों और सुविधा-लाभों को यह सरकार तिनका-तिनका बिखेरने में लगी है। कारखाना मालिकों को पंजीयन से मुक्ति, श्रमिक से जब चाहे मुक्ति जैसे नियोक्तापरक सुधारों के साथ श्रमिक को ईएसआई और पीएफ न कटवाने का विकल्प देकर सरकार श्रमिकों के पक्ष की सुनवाई किए बिना उनके हितों के प्रतिकूल कदम उठाने से बाज नहीं आ रही है।
श्रमिक हितों की परवाह किए बिना मोदी सरकार जिस तरह उनके आर्थिक हितों पर लगातार चोट किए जा रही थी, उसके खिलाफ श्रमिकों का आक्रोश घना होकर हिंसक रूप में भी सामने आया है। पीएफ को लेकर सरकार को तीन बार उठाए गए अपने श्रमिक-विरोधी कदम वापस लेने पर विवश होना पड़ा है। सबसे पहले बजट में उसने पीएफ की निकासी पर टैक्स लगाने का प्रस्ताव किया जो उसे वापस लेना पड़ा। फिर उसने अट््ठावन साल की उम्र से पहले पीएफ की निकासी पर रोक लगा दी, इसे भी उसे वापस लेना पड़ा। सरकार तब भी नहीं मानी, उसने जमा पीएफ की ब्याज दर में कटौती कर दी, जिसके खिलाफ श्रमिकों में देशव्यापी आकोश फूट पड़ा और बंगलुरू में तो हिंसक कार्रवाइयां भी सामने आर्इं। दबाव में आई सरकार को तुरंत प्रभाव से ब्याज दर घटाने का प्रस्ताव वापस लेना पड़ा।
जन आंदोलन लोकतंत्र की आत्मा हैं, लेकिन इनके हिंसक होने में कौन स्वाहा होगा, किसका मकसद हल होगा, कोई नहीं जानता। जलने जलाने का यह खेल किसी के हित में नहीं। विकास की रट लगाने वाले सहअस्तित्व, शांति और सद््भाव के महत्त्व को भी जरा जाने लें। (रामचंद्र शर्मा, तरुछाया नगर, जयपुर)
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नतीजों के संकेत
पांच राज्यों में नई विधानसभाएं चुन ली गर्इं। जैसा चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों में कहा गया था, परिणाम उसी मुताबिक रहे। भाजपा ने पूर्ण बहुमत के साथ पूर्वोत्तर में अपनी पहली सरकार के गठन की ओर कदम बढ़ाए हैं, तो बंगाल और केरल में सीटें हासिल कर वहां की राजनीति में पदार्पण कर दिया। कांग्रेस ने इन परिणामों के साथ दो राज्य और खो दिए।
भाजपा ने जनादेश को कांग्रेसमुक्त भारत की दिशा में बताया। ध्यान दें तो पाएंगे कि यह वक्तव्य खतरे की घंटी जैसा है। नई राजनीतिक परिस्थितियों में भाजपा के विपक्ष में कोई राष्ट्रीय पार्टी खड़ी नहीं होने जा रही। बंगाल विधानसभा में तीसरे स्थान पर सिमटे वामपंथी दल और जनाधार गंवा चुकी कांग्रेस मोदी और उनकी पार्टी का विकल्प होते नहीं दिख रहे। ऐसे में अपनी चुनावी सफलताओं और सीटों के गणित में अव्वल आने वाली जयललिता और ममता बनर्जी विपक्ष की प्रभावी ताकतों के तौर पर उभरेंगी। इसमें नीतीश-लालू से माया-मुलायम तक के शामिल होने की पूरी संभावना है। एक तरफ एकछत्र राज की ओर बढ़ती भाजपा, तो दूसरी ओर उसके विकल्प के रूप में वे लोग खड़े हैं जो स्थानीय क्षत्रप हैं और उनकी राजनीति क्षेत्र विशेष के इर्द-गिर्द घूमती रही है। अफसोस कि वामपंथी दल और कांग्रेस अपनी गलतियों से कोई सबक सीखते नहीं दिख रहे। (अंकित दूबे, नई दिल्ली)
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कैसी कुश्ती
यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि ओलंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार ने नरसिंह यादव के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में रियो ओलंपिक में खुद के प्रतिनिधित्व को लेकर ट्रायल के लिए याचिका दाखिल की है। यह तो नरसिंह का वाजिब अधिकार है, जो लंबे समय से चौहत्तर किलोग्राम फ्री स्टाइल वर्ग में तैयारी में जुटे हुए हैं और आखिरकार उन्होंने विश्व चैंपियनशिप जीत कर रियो ओलंपिक का टिकट हासिल किया। आज के खिलाड़ी खेल को खेल की भावना से न खेल कर स्वयं को सर्वोत्तम साबित करने में लगे हुए हैं। यह सुशील का दुर्भाग्य था कि वे विश्व चैंपियनशिप प्रतियोगिता के समय अस्वस्थ थे, जिसकी वजह से देश के सामने एक नया चेहरा उभर कर आया। नए चेहरे का देश को तहेदिल से स्वागत करना चाहिए। अवसर की समानता सबके लिए है तो यह याचिका संबंधी प्रतिशोध कैसा? आज अगर इस मामले में भारतीय कुश्ती महासंघ ने उचित निर्णय नहीं लिया तो भारत उदीयमान पहलवानों को हमेशा के लिए खो देगा। (शशि प्रभा, वायु सेना स्टेशन, आगरा)
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मजदूरों की सुध
एक मजदूर या किसान पचास डिग्री की गर्मी और दस डिग्री की कड़कड़ाती सर्दी में खुले आसमान के नीचे क्यों काम करता है? क्या सिर्फ पेट भरने के लिए ऐसा करता है? मेरा मानना है कि नहीं। उसे हमेशा एक दूसरी चिंता सताती है और वहीं से उसे यह सब करने की शक्ति मिलती है। उसे हमेशा यह दर्द सताता है कि कहीं आर्थिक तंगी के चलते उसके बेटे या बेटी को भी यही सब न करना पड़े जो वह कर रहा है। यही कारण है कि आज एक भी किसान या मजदूर नहीं चाहता कि उसका बेटा वहीं करे जो वह कर रहा है। जब कोई किसान या मजदूर अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी हमारी व्यवस्था के आगे हार जाता है तो वह आत्महत्या को गले लगा लेता है और हमारे राजनेता आत्महत्या को फैशन बता देते हैं। कुछ मजदूर खाड़ी देशों में मजदूरी के लिए जाते हैं जहां उनका शोषण होता है, लेकिन बच्चों की चिंता के कारण अपने परिवार से वर्षों दूर रह कर वे काम करते हैं। आखिर कब तक एक मजदूर मजबूर रहेगा? मजदूर और किसान के लिए सरकार को आगे बढ़ कर कुछ सोचना चाहिए। उनके भविष्य की सुरक्षा के लिए बचत, उनके बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि के बारे में विचार करना चाहिए। हमारे देश की नीतियों में बड़े बदलाव की आवश्यकता है।
(सूरज कुमार बैरवा, सीतापुरा, जयपुर)

