देश के सारे न्यायालय मुकदमों के बोझ से दबे पड़े हैं। उसमें भी वकीलों का रवैया न्यायालय को उलझा कर स्थिति को बद से बदतर कर देता है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति एसके कौल के पीठ ने यहां तक कह दिया कि अक्सर वकील मामलों को सूचीबद्ध कराने के लिए अदालत को गुमराह करते हैं। वे इस तरह अपने मामलों की पैरवी करते हैं जैसे इसकी तत्काल सुनवाई बेहद जरूरी है। वकीलों के इस रवैए से उन लोगों का नुकसान होता है जिन्हें अदालत में न्याय की तत्काल दरकार होती है। दोनों न्यायमूर्तियों की यह टिप्पणी इसलिए भी अहम है कि अदालतों में लंबित मुकदमों की अंतहीन सूची किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में वकील भी अदालत को गुमराह कर कोर्ट का कीमती वक्त जाया करें तो पीड़ितों को न्याय की जगह तारीख ही मिलेगी।
सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की बात करें तो 1 जनवरी 2019 को जारी आंकड़ों के मुताबिक वहां लंबित मुकदमों की संख्या 57,346 है। इनमें नियमित सुनवाई के मामलों की संख्या 20,899 है जबकि सुनवाई के लिए कतार में लगी याचिकाओं की संख्या 36,447 है। गौर करने वाली बात यह भी है कि साल के 365 दिन सुप्रीम कोर्ट खोल कर सुनवाई की जाए तो सभी मामलों को मिलाकर रोजाना 157 मामलों की सुनवाई करनी होगी। विभिन्न राज्यों में स्थित उच्च न्यायालयों की हालत इससे भी खराब है। नेशनल जुडिशल डेटा ग्रिड के 2018 के आंकड़े यह दशार्ते हैं कि पूरे देश की निचली अदालतों को मिलाकर 3.3 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। इसमें सिर्फ हाईकोर्ट में लंबित मुकदमों की संख्या ही 43 लाख है। विशेषज्ञ भी ऐसा मानते हैं कि पूरे देश में अदालतों में लंबित मामलों के निपटारे में लगभग 25 साल का वक्त लगेगा लेकिन इन 25 सालों में जो नए मामले दर्ज होंगे उनका क्या? जाहिर है, इसमें सरकार, न्यायालय के साथ-साथ वकीलों को भी मिलकर और योजनाबद्ध तरीके से काम करना होगा ताकि हर व्यक्ति को समय रहते न्याय मिल सके और यह उनके लिए व हम सभी के लिए सही भी है।
अमन सिंह, प्रेमनगर, बरेली, उत्तर प्रदेश</strong>
प्रदूषण की सजा: जर्मनी की कार निर्माता कंपनी फॉक्सवैगन पर अपनी डीजल कारों के जरिए प्रदूषण फैलाने के आरोप में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने सौ करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया है। यही नहीं, पर्यावरण संरक्षण के उपायों में सहभागी विभिन्न विभागों की समिति ने भी कंपनी की कारों द्वारा ज्यादा मात्रा में नाइट्रोजन आॅक्साइड के उत्सर्जन के कारण लोगों के स्वास्थ्य को हुए नुकसान के लिए सत्रह करोड़ रुपए अतिरिक्त वसूलने की सिफारिश की है। ये दोनों निर्णय स्वागतयोग्य हैं। आगे भी इस प्रकार की कार्रवाई जारी रहनी चाहिए।
ललित महालकरी, इंदौर, मध्यप्रदेश
बिगड़े बोल: नेताओं के बिगड़े बोलों की एक लंबी फेहरिश्त है। खासकर पिछले एक दशक से सत्ता पक्ष और विपक्ष के लोग एक-दूसरे को प्रतिद्वंद्वी के रूप में नहीं, बल्कि दुश्मन के रूप में देखते हैं। स्वस्थ लोकतंत्र का तकाजा है कि दोनों मजबूत हों, एक-दूसरे का सम्मान करें। मगर अब ऐसा नहीं हो रहा है। नेता लोग गाली-गलौज पर उतर आए हैं। अपशब्दों का प्रयोग राजनीति में आम हो चला है। मुगलसराय से भाजपा की विधायक ने तो अति ही कर डाली। बसपा नेता मायावती को उन्होंने जो कहा, लगता नहीं कि देश के राजनीतिक इतिहास में आज तक किसी ने ऐसा किसी के बारे में कहा होगा। इससेदो दिन पूर्व ही भाजपा अध्यक्ष के स्वाइन प्लू के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होने को लेकर वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने भी विवादास्पद बातें कहीं। राजनेता देश के कानून निर्माता होते हैं। उनके वचनों और भाषणों का अनुसरण किया जाता है। अगर वे अमर्यादित भाषा इस्तेमाल करेंगे तो देश का नागरिक भी वही करने को प्रेरित होगा।
जंग बहादुर सिंह, गोल पहाड़ी, जमशेदपुर
इनका प्रतिनिधित्व: कश्मीरी पंडितों के घाटी से जबरन विस्थापन के लगभग उनतीस वर्ष इस साल 19 जनवरी को पूरे हो गए। इस बीच न ‘पनुन कश्मीर’ (अपना कश्मीर) की अवधारणा साकार हुई और न पंडितों की घर वापसी का सपना पूरा हो सका। उन्हें वापस घाटी में बसाने की सरकार की पहल भी कोई रंग नहीं लाई। बदहाली से जूझती, अपने जख्मों को सहलाती इस देशभक्त कौम ने इन उनतीस वर्षों के दौरान अपनी मदद खुद की है। कश्मीरी पंडितों के मुद्दे को महज वोटों के लिए भुनाने की बात आहिस्ता-आहिस्ता साफ होती जा रही है। कश्यप ऋषि की संतानें विपरीत परिस्थितियों में जीना खूब जानती हैं। यही इस देशप्रेमी समुदाय का संबल और सहारा है। यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि जब तक कश्मीरी पंडितों की व्यथा-कथा को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर नहीं किया जाता तब तक इस धर्म-परायण, कर्तव्यनिष्ठ और राष्ट्रभक्त कौम की फरियाद को व्यापक समर्थन प्राप्त नहीं हो सकता। इसके लिए आवश्यक है कि सरकार इस समुदाय के किसी जुझारू, कर्मनिष्ठ और सेवाभावी नेता को राज्यसभा में मनोनीत करे ताकि पंडितों के दुख-दर्द को देश तक पहुंचाने का उचित और प्रभावी माध्यम इस समुदाय को मिले। अन्य मंचों की तुलना में देश के इस सर्वोच्च मंच से उठाई गई समस्याओं की तरफ जनता और सरकार का ध्यान तुरंत जाता है।
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर
मौत के गड्ढे: गड्ढों की वजह से हमारे देश में रोजाना औसतन दस लोगों की जान चली जाती है। सिर्फ 2018 में गड्ढों के चलते हुई सड़क दुर्घटनाओं में 3,597 लोगों की मौत हुई है। यदि 2017 में हुई मौतों से तुलना करें तो यह संख्या पचास फीसद ज्यादा है। सड़कों में गड््ढों की समस्या का कारण नगर निगम, राज्यों के सड़क विभाग, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और अन्य संस्थानों द्वारा सड़कों का ठीक से रखरखाव नहीं करना है। सड़कों पर गड््ढे सिर्फ प्राकृतिक कारणों जैसे कि बारिश, बाढ़ या अन्य आपदाओं के चलते नहीं बनते हैं। ज्यादातर मामलों में बिजली के तार डालने अथवा पानी या सीवर लाइन के लिए सड़कों को खोद दिया जाता है और उन्हें बिना भरे यों ही छोड़ दिया जाता है। कई मामलों में तो खराब गुणवत्ता के चलते मॉनसून के तुरंत बाद ही सड़कों पर गड््ढे नजर आने लगते हैं। ठेकेदारों की बेईमानी और ऐसे कामों की निगरानी के लिए नियुक्त अधिकारियों की लापरवाही के चलते भी सड़कों की बुरी हालत हुई है। केंद्रीय परिवहन मंत्री को इस समस्या से निजात दिलाने के लिए कोई अच्छी योजना बनाने की आवश्यकता है।
विशेक, दिल्ली विश्वविद्यालय
किसी भी मुद्दे या लेख पर अपनी राय हमें भेजें। हमारा पता है : ए-8, सेक्टर-7, नोएडा 201301, जिला : गौतमबुद्धनगर, उत्तर प्रदेश
आप चाहें तो अपनी बात ईमेल के जरिए भी हम तक पहुंचा सकते हैं। आइडी है : chaupal.jansatta@expressindia.com