आज अगर हम बेहद दुखी मन से यह कह देते हैं कि देश का विकास तो नहीं हुआ, देश सतत एक विनाश यात्रा पर अग्रसर है, तो नाराज हो सकते हैं कुछ लोग। कुछ लोगों के लिए वर्तमान स्थितियां सकारात्मक भी हो सकती हैं। शायद उन्हें लग रहा हो कि यही तो है उनके सपनों का भारत। दरअसल, चीजों को समझने और परखने की कसौटियां सबके लिए एक-सी हो भी नहीं सकतीं।
आज देश का सामान्य व्यक्ति निरंतर बढ़ती महंगाई, आमदनी में कमी, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाओं की बदहाली से त्रस्त है। उस पर भय, तनाव, नफरत-हिंसा और सत्ता की निरंकुशता- इन स्थितियों में जीना जैसे उसकी नियति हो गई है। अपने आसपास के निजी अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि आज हर चेहरे पर मायूसी और चिंता की लकीरें दिखाई देती हैं। सड़कों-चौराहों पर सुनाई देने वाला शोर और चीख-पुकार इसी का नतीजा है। हर दिन जगह-जगह, अलग-अलग मुद्दों को लेकर आंदोलन और विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं।
इनके समांतर देश की नीति-नियंता मंडली द्वारा मुद्दों की उपेक्षा और बेतुके स्पष्टीकरण दिमाग को परेशान करते हैं। मायूस और थके-हारे लोग जब आंखिनदेखी कहने की हिम्मत दिखाते हैं, तो उनको कागद की लेखी में उलझा कर आंकड़ों की झड़ी लगा दी जाती है। कबीर अनायास याद आ जाते हैं। भीतर का ‘भया कबीर उदास’ बाहर निकल कर ‘कबिरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ’ हो जाता है। हम उम्रदराज लोगों को आज अगर महसूस हो रहा है कि ये कहां आ गए हम, तो इसमें गलत क्या है!
’शोभना विज, पटियाला