दिल्ली के अंबेडकर नगर में एक महिला के अपनी तीन बेटियों का गला घोंट कर आत्महत्या के प्रयास के पीछे लड़का न होने के तानों से अजीज आने की कहानी हो या निर्भया के बलात्कारियों और उनके वकीलों के वक्तव्य महिलाओं के प्रति हमारे समाज के भेदभावपूर्ण दोयम सोच को दर्शाते हैं। निर्भया बलात्कार के आरोपी का एक वकील कहता है कि लड़की तो हीरे के समान है, उसे सड़क पर छोड़ोगे तो लुटना तय है। दूसरा वकील कहता है कि मेरी बेटी अगर किसी गैरमर्द के साथ दिखे तो सबके सामने जला कर मार दूंगा। दुर्भावना के ऐसे सामाजिक परिवेश में महिला दिवस जैसे अवसरों पर महिलाओं के साथ न्याय और बराबरी की बातें महज बातें बन कर रह जाती हैं। हम देख रहे हैं कि देश की महिला, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में काम कर रही हो या रह रही हो, सुरक्षित नहीं है। यह असुरक्षा आतंक से जुड़ी हो या सामाजिक कुरीतियों या पुरुषवादी मानसिकता से, बर्बर कहानी बन कर सामने आती रही है।

यह आधी आबादी के जीवन को नरक बनाए रखने के सबब के भिन्न रूपों में सामने आती रहती है। खुदमुख्तार आदिवासी महिला हो या आधुनिक शहरी महिला, सब बदहवासी के साये में दिखाई देती हैं। सरकार महिलाओं के बचाव में क्यों उदासीन है? महिला हो या जवान लड़की या मासूम बच्चियां, क्यों सुरक्षित नहीं हैं? निर्भया कांड के बाद फांसी तक की सजा का प्रावधान कर दिए जाने के बाद भी बलात्कार की घटनाएं थमने के बजाय बढ़ी क्यों हैं? पुलिस रिकार्ड से साबित हो रहा है कि बलात्कार की घटनाएं पिछले वर्ष की तुलना में सौ प्रतिषत से भी ज्यादा बढ़ी हैं। क्या कानून प्रभावी नहीं हुआ है या उसका डर नहीं है?

घर में अभिभावक, मंदिर में पुजारी, होटल में मैनेजर, फ्लैट में चौकीदार, वाहन में ड्राइवर और थाने में पुलिस ही जब बलात्कार की आरोपी हो, तो बचाएगा कौन? बलात्कार की घटनाएं थमने की बजाय और भी वीभत्स स्वरूप में सामने आ रही हैं। महिलाओं पर तेजाबी हमले और बलात्कार के बाद पीड़िता आंखें फोड़ने की घटनाएं और भी वीभत्स होकर सामने आ रही हैं। ये त्रासद कारनामे घर, स्कूल, मदरसे, बस, रेल, टैक्सी, मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि हर जगह सामने आ रहे हैं।

दिल्ली का हालिया उबेर टैक्सी कांड हालात के पहले से भी बदतर होने का उदाहरण बनकर हमारे सामने है। जयपुर में सांगानेर, विद्याधर नगर आदि अनेक क्षेत्रों में बहुत कम उम्र की बालिकाओं से बलात्कार की ऐसी घिनौनी हरकतें सामने आई हैं, जिन्होंने समाज को निरंतर शर्मसार किया है। जयपुर में नवजात बालिकाओं को ठिठुरती ठंड में झाड़ियों के नीचे मरने के लिए फेंक जाने के मामले भी सामने आ चुके हैं। ट्रेन में नवजात बालिका को छोड़ने और फेंकने की घटनाएं भी सामने आई हैं। नवजात बच्चियों को इस तरह मरने के लिए छोड़ने की घटनाएं निश्चित ही चिंताजनक हैं।

बलात्कार आदि और जिंदगी के हनन की बढ़ती घटनाएं निश्चित ही समाज में क्रूरता बढ़ने का संकेत हैं। इस क्रूरता के पीछे कहीं न कहीं व्यक्तिकेंद्रित स्वार्थपरक भोगवादी भाव हैं तो कहीं नवधनाढयों की चकाचौंध, अश्लील भोग का प्रसार, कहीं वंचना और अभावों की कुंठा का घृणाजनित प्रहार जो विषमता और असमानता की कोख से निकल कर वीभत्स रूप ले लेता है। इनके इलाज की कोई एक दवा नहीं हो सकती।

आधुनिकता की चकाचौंध के बीच दरिंदगी के ये घाव समाज में निरंतर रिस रहे हैं जिनके इलाज की चिंता कहीं दिखाई नहीं दे रही। सुरक्षा का अभाव कमजोर, वंचित, उपेक्षितों को ही घेरे हुए नहीं है बल्कि महिलाओं में तो यह उच्च और संपन्न वर्ग तक पैठा हुआ है। आम जनमानस में गहरे पैठी पुरुषवादी मानसिकता से समाज को निकालने के प्रयासों के साथ आधी आबादी को बराबरी पर लाने के अथक जतन करने होंगे। यह बिना जाग्रति और संघर्ष के संभव नहीं है। वंचना, अभाव, भय और उत्पीड़न से मुक्ति न सरकार के एजेंडे में है और न ही समाज के।
रामचंद्र शर्मा, तरुछाया नगर, जयपुर

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