दिलीप मंडल का लेख ‘तीसरी धारा और वामपंथ का विलोपनवाद’ (19 फरवरी) पढ़ा। प्रकाश करात, लालूजी, नीतीशजी, बहनजी खुद सिकुड़ कर भी आम आदमी पार्टी की जीत से अधिक मोदी हार पर थिरक रहे हैं। जो पार्टियां ‘मोदी-डाह’ के कारण ‘आप’ पर मेहरबान हैं उनके यहां भी (बिहार, बंगाल, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, आदि) आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। घनघोर जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता के इकतरफा ओवरडोज, ‘कुल-वंश’, भ्रष्टाचार से बिलबिला रहे हैं कई राज्य।

दरअसल, अरविंद केजरीवाल के जरिए बड़ी पार्टियों के अहंकार, नेताओं के दंभ और भय-भूख-भ्रष्टाचार से उबियाए हुए लोगों को एक विकल्प मिला। लोग जुड़ते गए, कारवां बनता गया। ‘ घीसू’ और ‘माधव’ (पढ़ी है न प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ … न पढ़ी हो तो भी कोई बात नहीं, अपने आसपास, सड़क-बाजार और जीवन में देख और महसूस सकते हैं उन्हें…) की जिनिगी में आजादी के 67 -68 साल बाद भी सवेरा नहीं आया है। वैकल्पिक राजनीति लिए भरपूर जगह है दिल्ली ही नहीं, पूरे देश में। लोगों को अपनी खोई हुई आवाज मिल गई, अरविंद के ‘स्वराज’ में। एक ईमानदार सपने में!

दिल्ली में आम आदमी पार्टी को पहली बार में ही जो जन समर्थन मिला उससे पता चला कि ‘मुख्यधारा’ के अहंकार से लोगों में कितनी ऊब है! अरविंद ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में चेतना का संचार किया। सादगी और ईमानदारी को फैशन बना दिया। यह बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन है। अपने अहंकार के लिए चर्चित नेता /नेत्री भी सादगी से सरकार चलाना सीख-समझ रहे हैं। वीआइपी के चलन को लाज आने लगी। गांधीगीरी की तरह आप की सादगी छा गई, लोगों को भा गई!

मोदी से डाह रखने वाले सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले लालूजी, नीतीशजी के साथ-साथ उद्धव ठाकरे दिल्ली के चुनाव परिणाम पर ‘आप’ से भी ज्यादा गदगद हैं। हां, ममताजी भी प्रफुल्लित हैं। अरे, भूल गया यूपी भी खुश है! मगर ‘लोकतंत्र प्राइवेट लिमिटेड’ वाले ये दल और नेता क्यों भूल गए कि उनके यहां तो और ज्यादा ‘आप’ की जरूरत है। जातिवाद, अर्द्धसामंतवाद, भ्रष्टाचार, बाहुबल और कुशासन से बजबजाते यूपी और बिहार में ही नहीं सभी 29 राज्यों में विकल्प की राजनीति की जरूरत है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां (भाकपा, माकपा, माले) जो मुद्दे उठाती हैं वह वैचारिक और जन सरोकार के स्तर पर सबसे बेहतर होता है। क्रांतिकारी होता है। जनधर्मी और जीवनधर्मी होता है। उनसे भी क्रांतिकारी माओवादी पार्टी (नक्सली) है। पर, वह ‘सत्ता बंदूक की नाल से निकलती है’ पर विश्वास करती है। हिंसा का मार्ग अपनाए हुए है। नक्सल आंदोलन अन्याय, शोषण, भूख के कारण ही तो हुआ था। क्या हुआ उस सुंदर सपने का? वे तो अंबानी और अडानी पर सवाल उठाते हैं, पूरी शोषक व्यवस्था को सर्वहारा का दुश्मन ठहराते हैं। बुर्जुआ सत्ता से लड़ने के चक्कर में सर्वहारा के खून से रंगे हैं उनके हाथ!

‘आप’ की जीत के लिए किसी ‘शोध’ की जरूरत नहीं है। देश की राजधानी में भरे जाड़े में सड़कों के किनारे बेघर लोगों को कोई भी देख सकता है। शुद्ध पानी तक सबको नसीब नहीं है। 65 -67 साल बाद भी बुनियादी समस्याएं वहीं की वहीं हैं। किसी भी सरकारी अस्पताल-स्कूल का दौरा कर लीजिए, आपको पता चल जाएगा कि विकल्प क्यों जरूरी है? भ्रष्टाचार और महंगाई से आम आदमी सबसे तबाह रहता है। ऐसे में, कोई भी विश्वसनीय विकल्प, अगर उसके पास विजन है, सपने हैं, वह जनता को भा ही जाएगा।

योगेंद्र यादव का कहना उचित है कि ‘शुभ को सच में बदलने की जिद ही वैकल्पिक राजनीति है। लोग विकल्प चाहते हैं और विकल्प को सपना नहीं बल्कि संभव बनाया जाए।’ जी हां, वैकल्पिक राजनीति संभव होगी जरूर!
प्रमोद कुमार पांडे, मयूर फेज-3, दिल्ली

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta