देश में ‘अच्छे दिन’ के वादे पूरे होते कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। उलटे केंद्र और कई राज्यों की भाजपा सरकारें लोगों की सेहत के प्रति संवेदनहीन जरूर दिख रही हैं। जनता का स्वास्थ्य खतरे में है। जबकि भाजपा की चाहे केंद्र की सरकार हो या राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार, उनके एजेंडे में जीवनयापन की जरूरतें नहीं, बल्कि पूंजी की पिपासा और उसके मोहजाल में चक्करघिन्नी है। पूंजी के नाज-नखरे उठाने में तल्लीन उनकी दृष्टि और दिमाग को कुछ भी सूझ नहीं रहा है।

उनकी सारी शक्ति और दिमाग पूंजी की सेवा में लग रहा है। पुण्य प्रसून वाजपेयी के जनसत्ता (15 फरवरी) में छपे समाचार विश्लेषण ‘बदहाल दिल्ली में हार गया सीमा का सिपाही’ में तेजी से फैल रही स्वाइन फ्लू की महामारी के प्रति सरकार के आंख मंूदे रहने की स्थिति का साफ-साफ चित्रण है। खबरों के अनुसार, स्वाइन फ्लू से देश में साढ़े चार सौ मौतें हो चुकी हैं। राजस्थान इसमें सबसे आगे है। यहां स्वाइन फ्लू से हुई मौतों की संख्या एक सौ पैंसठ पार कर चुकी है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और वर्तमान गृहमंत्री कटारिया भी चपेट में आ गए। यह उनका सौभाग्य था कि बच गए।

राजस्थान सूखा प्रदेश होकर भी बहादुरी के लिए जाना जाता है। यहां नौजवान सीमा की रक्षार्थ सेवा को अपनी शान समझते हैं। यहां का किसान अभाव के बावजूद आत्महत्या की नहीं, बल्कि संघर्ष की राह चुनता है। हौसले से भरे जन-मन के विपरीत यहां की सामंती सोच की सरकार उलटी दिशा में चल रही है। पिछली सरकार ने मुफ्त जांच और दवा की जो सुविधा सरकारी अस्पतालों में लागू की थी, राजे सरकार उससे पिंड छुड़ाना चाहती है। उसने आधिकारिक घोषणा तो जन-विरोध के भय के मारे नहीं की, पर बजट उपलब्ध कराने से लेकर अनेक मंचों पर इस योजना पर सवाल उठा कर अपनी मंशा जरूर बताती रही है। उसने ऐसे हालात बना दिए हैं कि अब सरकारी अस्पतालों में न मुफ्त जांच हो सके और न ही दवा मिल सके। स्वाइन फ्लू की जांच और दवा दोनों ही बहुत महंगी हैं। निजी अस्पताल ऐसे मरीज ही भर्ती नहीं करते जो ऐसी संक्रमण वाली बीमारी से पीड़ित हों। ऐसे में इस बीमारी की चपेट में आए साधारण लोग क्या करें, कहां जाएं? पिछले महीने तो एक अवसर पर राजस्थान के सबसे बड़े अस्पताल सवाई मानसिंह तक में शत-प्रतिशत दवाओं के उपलब्ध न होने के ठप्पे मरीजों के लिए लिखी डॉक्टरों की पर्ची पर लगने लग गए थे। समाचार माध्यमों और जनसेवी संगठनों के शोर मचाने पर कुछ दवाओं के आदेश बेमन से राज्य सरकार की ओर से दवा कंपनियों को जारी किए गए। स्वाइन फ्लू की दवा भी उपलब्ध नहीं रही। देसी काढ़े के प्रचार पर जोर रहा। जनता देसी नुस्खों के सहारे जीये या मरे, सरकार की बला से!

राजे सरकार की चिंता तो घर-घर शराब पहुंचाने की है। हो भी क्यों न, राज्य की मुख्यमंत्री महारानी जो ठहरीं। जनता को दो जून की रोटी के जुगाड़ के लिए चाहे जितने पापड़ बेलने पड़ें, इलाज कराना चाहे जितना मुश्किल हो, बच्चों पढ़ाना चाहे जितना कठिन हो, युवा भले रोजगार को तरस रहे हों, पर मदिरापान की राजशाही विरासत घर-घर में अक्षुण्ण बनी रहे! पिछली बार जब वसुंधरा राजे शासन में आई थीं, तो मोहल्ले-मोहल्ले, सड़क-सड़क देशी, अंगरेजी शराब की दुकान के परमिट दे गई थीं और अबकी बार घर-घर तक शराब की पहुंच और आसान बनाने के लिए रेस्तरां, ढाबों और थड़ी-ठेलों में शराब परोसने का लाइसेंस बांटा जा रहा है। भूख और बीमारी को भुलाने का इससे बढ़िया इलाज भी क्या है भला! दवा न सही दारू तो है! नशे के बाद दवा किसे चाहिए? न शिक्षा की जरूरत न चिकित्सा की!

रामचंद्र शर्मा, तरुछाया नगर, जयपुर

 

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