समाज जैसी सीख अपने बच्चों को दे रहा है उसका नतीजा भी उसी के अनुरूप मिल रहा है। बच्चों की परवरिश किस परिवेश में हो रही है और इंटरनेट, टीवी, सिनेमा, मोबाइल, पत्रिकाएं और अखबार में छपने वाली ‘मसालेदार’ सामग्री से बच्चों और युवाओं को क्या ‘इनपुट’ मिल रहे हैं। अखबार का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूं कि आप स्वयं मंथन करें कि क्या आप परोक्ष में ऐसे अपराधों में मददगार तो नहीं हैं। यहां सरकार और अभिभावक भी कठघरे में खड़े होते हैं, जो ‘बुरी’ सामग्री को सेंसर करने में विफल हैं और अपने बच्चों के ऊपर निगरानी रखने की जरूरत नहीं समझते। अगर अभिभावक बच्चों को सही समय दें और गांव-गांव में अच्छी किताबों/ खेल सामग्री से युक्त शिक्षण केंद्र हों तो दिमाग सकारात्मक चीजों की ओर लगेगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में माता-पिता से अपेक्षा की कि वे अपनी लड़कियों से जितने सवाल करते हैं, लड़कों से भी करें कि वह कहां आता-जाता है, किनके साथ बातें करता है, क्या बातें करता है तो यौन हिंसा के अपराध कम होंगे। अच्छा सुझाव है। साथ ही, क्योंकि मासूम बच्चियों के साथ ऐसी घटनाएं आए दिन घट रही हैं इसलिए अभिभावकों को घर-परिवार, पड़ोस, बाजार, शादी-विवाह आदि समारोहों के दौरान बच्चों की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए और डीजे के तेज शोर में मासूम बच्चियों की चीख-पुकार सुनी जा सके इसका ध्यान रखना चाहिए। क्यों न दो-चार स्वयंसेवी युवा ऐसे समारोहों के दौरान बच्चों की देखरेख करें और संदिग्धों पर नजर रखें। जैसा कि आतंकवादी गतिविधियों के मामले में सलाह दी जाती है, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और यौन अपराधों के संबंध में भी समाज को सतर्क रहना चाहिए और इनकी रोकथाम और अपराधियों की धर-पकड़ में यथासंभव सहयोग करना चाहिए।

विडंबना यह है कि वारदात होने पर हम धरना, हड़ताल, जलूस, तोड़फोड़, जैसी गतिविधियों में शामिल होने के लिए हमारे पास महीने की फुर्सत है। ऐसे ही सरकार में मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री, पुलिस-प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों तक के लंबे बयान और प्रतिबद्धता के झूठे वादे तब होते हैं, जब घटना घट चुकी होती है। मेरा मानना है कि समाज और सरकार इसका एक अंशमात्र भी अगर पहले खर्च कर सके तो ऐसी घटना घटे ही न।
कमल कुमार जोशी, अल्मोड़ा

 

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