इस साल मई-जून में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान केंद्रीय संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार को लोगों और पत्रकारों ने कई बार खांसते हुए देखा था। चुनाव खत्म होते ही जब अनंत कुमार ने डॉक्टरों से इलाज कराया तो पता चला कि उन्हें फेफड़ों का कैंसर है। फिर सात महीने के भीतर ही 12 नवंबर को खबर आई कि अनंत कुमार नहीं रहे। आखिर कब तक हम इस तरह की बीमारियों से लोगों की मौत को विधि का विधान मान कर स्थितियों से मुंह मोड़ते रहेंगे? जब एक केंद्रीय मंत्री को, जिन्हें तमाम चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध थीं, कैंसर से नहीं बचाया जा सका तो आम कैंसर पीड़ितों का क्या होता होगा! लगातार जीत की ओर अग्रसर पार्टी के एक चमकदार मंत्री का यों कैंसर से जंग में हार जाना सोचने को मजबूर करता है कि आखिर कब तक यह बीमारी लाइलाज बनी रहेगी? क्या हमारा अगला लक्ष्य इस हार को जीत में तब्दील करना नहीं होना चाहिए?

कैंसर का जिक्र आते ही उन लोगों की रग-रग थर्राने लगती है जो स्वास्थ्य को लेकर जागरूक हैं या उसके मामले में थोड़े-बहुत भी सयाने हैं। हममें से हरेक ने कभी न कभी किसी जानकार को इस खौफनाक समझी जाने वाली बीमारी से जूझते देखा होगा। लेकिन क्या कैंसर सचमुच उतना खतरनाक है जितना उसे समझ जाता है या कैंसर के दुखद अनुभव के लिए हम ही जिम्मेदार हैं कि हमने इस बीमारी को बड़ा हौवा बना लिया है! डॉक्टरों का कहना है कि कैंसर से बहुत ज्यादा डरने की जरूरत नहीं है। अगर हम अपनी मौजूदा जानकारी को देखें तो कैंसर के 90 प्रतिशत से ज्यादा मरीजों का पहले चरण में इलाज हो सकता है। दूसरे चरण में यह अनुपात करीब 70 प्रतिशत है, तीसरे चरण में 40 प्रतिशत और चौथे चरण में 10 प्रतिशत से भी कम रह जाता है। आजकल कई तरह के कैंसर को गंभीर लेकिन काबू में आने लायक बीमारी माना जाता है।

अक्सर देखा गया है कि एक तिहाई से ज्यादा कैंसर तंबाकू या उससे बने उत्पादों के सेवन की देन हैं जबकि एक तिहाई खानपान और रहन-सहन या दूसरे सामाजिक कारकों से जुड़े हैं। इसलिए दुनियाभर में विभिन्न भौगोलिक स्थितियों में कैंसर के स्वरूप और फैलाव में भिन्नता नजर आती है। कैंसर की मुख्य वजह तंबाकू के सेवन की स्थानीय आदत, खान-पान के तरीके और सामाजिक-आर्थिक व रहन-सहन जैसे कारक होते हैं। भारत में 80 प्रतिशत से अधिक कैंसर रोगी तीसरे और चौथे चरण में इलाज के लिए आते हैं, और तब तक अधिकतर मामले लाइलाज हो जाते हैं। उसी वजह से यह भ्रांति फैलती है कि कैंसर लाइलाज है। सामान्य अज्ञान या जानकारी की कमी, निरक्षरता, खराब सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और कैंसर के निदान और इलाज की गुणवत्ता व मात्रा दोनों के हिसाब से सुविधाओं की भारी कमी जैसे कुछ कारणों से हमारे देश में कैंसर के मामले में माहौल इतना निराशाजनक है। उसे बदलने के लिए दृढ़ राजनीतिक और प्रशासनिक संकल्प की जरूरत है।
देवेंद्र जोशी, महेशनगर, उज्जैन

जमीनी हकीकत: कहने को तो हम विश्वगुरु बनने का सपना देख रहे हैं, लेकिन हमारे देश की जमीनी हकीकत इस सपने को ठेंगा दिखाती नजर आती है। हाल ही में आई एक गैर सरकारी संगठन ‘सेव द चिल्ड्रन’ की रिपोर्ट बताती है कि आसानी से ठीक की जा सकने वाली बीमारी निमोनिया से सन 2030 तक 17 लाख से अधिक बच्चे मर सकते हैं। सन 2016 तक इस बीमारी से 8,80,000 बच्चों की जान चली गई थी। बच्चे, जो देश का भविष्य हैं, यदि इसी तरह मरते रहेंगे तो समझ सकते हैं कि हम कैसा भारत बनाएंगे? क्या इसी तरह देश का संपूर्ण विकास हो पाएगा? आज के हालात बताते हैं कि भारत को बुलेट ट्रेन से पहले बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की आवश्यकता है।
उपासना, आंबेडकर कॉलेज, दिल्ली</strong>

गाड़ियों की उम्र: प्रकृति ने सबकी आयु तय कर रखी है फिर गाड़ियां तो मानव निर्मित हैं। हिंदुस्तानी गाड़ियों को तय उम्र के बाद ठोक-पीट कर चलाना शायद अब संभव नहीं। गाड़ियों की उम्र पर दिल्ली सरकार के नए फैसले से पहली और अंतिम बार दीर्घकालिक इएमआई पर गाड़ी खरीदने वालों पर जाने क्या गुजरी होगी! सिकुड़ते हुए शहर में इंसान के लिए कम पड़ती जगह में सवाल गाड़ियों के कबाड़ के निपटारे का भी है। दूसरे कई शहरों की हालत भी दिल्ली से अलग नहीं है। दरअसल, गाड़ियों की घटती उम्र का बोझ खरीददार पर लादना कतई मुनासिब नहीं है। ढलती उम्र की गाड़ियों से धुआं बन कर निकलता जहर अप्रत्याशित नहीं, फिर भी सरकारें बेखबर रहती हैं। गाड़ियां बेचने की इजाजत सरकार देती है तो उनके धुएं की जिम्मेवारी भी उसे लेनी होगी। बेहतर होगा कि पूरे देश में वाहन बिक्री पांच सालों की लीज पर हो ताकि देश को साफ हवा और खरीददारों को नई गाड़ियां मिलती रहें।
एमके मिश्रा, रातू, रांची, झारखंड</strong>

डिजिटल संप्रभुता: किसी भी देश के लिए जनसंख्या, निश्चित भूभाग और सरकार के साथ-साथ संप्रभुता अनिवार्य घटक माने जाते हैं। संप्रभुता का क्षेत्र स्वतंत्रता से व्यापक है। संप्रभुताविहीन देश स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम नहीं होता है। लेकिन उसमें अब नया पेच यह है कि बढ़ती डिजिटल दुनिया में संप्रभुता के डिजिटल स्वरूप पर सरकार का नियंत्रण स्थापित नहीं हो पा रहा है। आने वाले दशकों में सुरक्षा की दृष्टि से डिजिटल संप्रभुता दुनिया के छोटे-बड़े देशों के लिए तकरार का विषय हो जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
हालांकि अभी डिजिटल क्षेत्र में बहुत बड़ी समस्या का सामना सरकार को नहीं करना पड़ रहा है लेकिन जिस रफ्तार से दुनिया डिजिटल होती जा रही है और यदाकदा सोशल साइट्स पर सरकार का नियंत्रण नहीं होने की बात सामने आती है, हैकर्स कंप्यूटर को हैक कर लेते हैं, ऐसे में डिजिटल संप्रभुता सरकार और नागरिकों के लिए निस्संदेह एक समस्या बन कर उभर सकती है।
मिथिलेश कुमार, भागलपुर, बिहार

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