हाल ही में राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में ऋण का सर्वाधिक बोझ दो हेक्टेयर से अधिक खेतों वाले किसानों पर है। दो हेक्टेयर से अधिक ऋण के भार से भारत के ग्रामीण क्षेत्र में निवास करने वाले 60 फीसद किसान दबे हुए हैं, 0.4 हेक्टेयर से कम खेत वाले छोटे एवं सीमांत किसान 50 फीसद से कम कर्जदार हैं। खेतिहर परिवारों में सबसे अधिक कर्जदारी क्रमश: तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, तमिलनाडु, केरल और ओडिशा में है।
किसानों का लगातार बड़ी संख्या में आत्महत्या करना गंभीर चिंता एवं विचार-विमर्श का विषय है। सामान्यतया बाढ़ या सूखे के कारण फसलें मर जाने या फिर बैंक या साहूकार का कर्ज न अदा कर पाने के कारण किसान बड़ी संख्या में दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से असमय मौत को गले लगा लेते हैं। इससे उनका सारा परिवार बिखर जाता है। किसानों की आत्महत्या की दरों में वृद्धि से परेशान होकर सरकार ने इन आत्महत्याओं से संबंधित रिपोर्ट के प्रकाशन पर रोक लगा दी है क्योंकि उसे डर था कि किसानों की आत्महत्या का यक्ष प्रश्न सरकार के लिए खतरा न पैदा कर दे। किसानों की आत्महत्या के सवाल पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि साल 2015 में 8007 किसानों और 4595 कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की। यह आंकड़ा देश में उस साल हुई कुल आत्महत्याओं का 9.4 फीसद है। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि किसानों की आत्महत्या के मामले में 4291 आत्महत्याओं के साथ महाराष्ट्र शीर्ष पर है। इसके बाद कर्नाटक में 1569, तेलंगाना में 1400, मध्यप्रदेश में 1290, छत्तीसगढ़ में 954, आंध्र प्रदेश में 916 और तमिलनाडु में 606 किसानों ने एक साल में आत्महत्या की।
एक तरफ ‘न्यू इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ की बात जोर-शोर से चल रही है। यह सरकार की सबसे महत्त्वाकांक्षी योजना है। इसके बावजूद इस न्यू इंडिया और डिजिटल इंडिया में 60 फीसद ग्रामीण परिवार मोबाइल बैंकिंग का उपयोग करना नहीं जानते और एक चौथाई कृषक परिवार आज भी स्वतंत्र रूप से एटीएम का उपयोग करना नहीं जानते। वैश्वीकरण के जिस दौर में दुनिया के अन्य देशों के किसान डिजिटल हो रहे हैं, प्रौद्योगिकी का ज्ञान विकसित कर कृषि से अधिकतम लाभ कमा कर निवेश कर रहे हैं वहीं आज भी 60 फीसद भारतीय किसानों का मोबाइल बैंकिंग एवं एटीएम के बारे में न जानना निराशाजनक है।
भारत में किसानों का हाल यह है कि वे अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऋण पर निर्भर रहते हैं। उनके पास इतना पैसा नहीं होता कि अपने बच्चों को प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में पढ़ा सकें। अपने खून-पसीने की मेहनत से सबका पेट भरने वाला अन्नदाता आज खुद अपना पेट भरने के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को विवश है। किसानों के इस दयनीय हाल से डर कर कोई भी युवा खेतीबाड़ी की तरफ देखना भी नहीं चाहता है। सरकार की गलत कृषि नीतियों के कारण आज कृषि कार्य को सबसे निम्न दर्जे का समझा जाता है। हालांकि, कृषि संकट और किसानों की दयनीय दशा सुधारने के लिए सरकार ने कृषि क्षेत्र में कुछ सुधारात्मक कदम जरूर उठाएं हैं जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
कुंदन कुमार क्रांति, बीएचयू, वाराणसी
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