अभिव्यक्ति की आजादी का हवाला देकर चुटकलेबाजी जब अश्लीलता में परिवर्तित होने लग जाए तो समाज की नैतिक मर्यादाओं का खंडित होना स्वाभाविक है। यह तर्क कि जिसे ऐसे कार्यक्रम देखने हों देखे वरना न देखे, कोई वाजिब तर्क नहीं कहलाएगा। यह वैसी ही बात हुई जैसे कोई प्रिंसिपल स्कूल-कॉलेज के बाहर ‘बियर-पब’ खोलने की अनुमति दे दे और साथ में यह भी कह दे कि जिन छात्रों का मन करे पब में जाएं और जिनका न करे वे न जाएं!

हाल ही में मुंबई में हुए ‘एआइबी’ कार्यक्रम का मामला भी कुछ इसी तरह का है। चारदीवारी या घर के अंदर चाहे कुछ भी होता हो, वह ‘अंदर की बात’ होती है, सार्वजनिक होने पर वह सामाजिक सरोकारों से जुड़ जाती है। अगर उसके अच्छे-बुरे होने पर बहस/ विवाद होने लगे, तो यह स्वाभाविक है। तथाकथित मनोरंजन से जुड़ा कोई भी कार्यक्रम यदि हमारी सांस्कृतिक/नैतिक सीमाओं का उल्लंघन कर संस्कारों को परिष्कृत करने के बजाय उन्हें दूषित/अपसंस्कृत करता हो, तो प्रश्न तो खड़े होंगे ही।
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर

 

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