‘जाति की जंजीर’ (जनसत्ता, 30 दिसंबर) छोटा-सा पत्र ‘सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर’ की तरह सारगर्भित है। ‘कोई क्यों रहे अगड़ा, पिछड़ा, दलित, महादलित? सही, सटीक और जरूरी प्रश्न है। बहुचर्चित फिल्म पीके इस सवाल का भी ऐसा उत्तर देती है कि सामने वाला निरुत्तर हो जाता है, जब धर्म और जाति के स्वघोषित प्रवक्ता से वह कुछ लोगों की जातियों को पता लगाने को कहा जाता है और वे एक सिरे से गलत निकलते हैं, बगैर किसी उत्तेजित बहस या गर्मागरमी के बात सरलता से समझ आती है कि प्राकृतिक रूप से जातियों में नहीं बंटा है इंसान।

यही बात धर्म के संबंध में कही जा सकती है। कैसी अजीब बात है कि धर्म और जाति चुनने का हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं है। हमारा सोच, विश्वास, कर्म आदि कोई मायने नहीं रखते, बस हमें कैद कर दिया गया है एक व्यापक जगत और इंसानियत से काट कर। क्या हम जिंदगी भर बंधुआ बने रहने को ही अभिशप्त रहेंगे? सवाल तो पहले भी था तभी तो डॉ भीमराव आंबेडकर गांधीजी से असहमत होते हुए मानते थे कि हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था में रहते हुए समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज संभव नहीं है। हालांकि भारतीय संविधान ने न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज बनाने के प्रावधान किए हैं, पर जवाहरलाल नेहरू के बाद यह कोशिश गंभीरता से उनकी ही पार्टी ने नहीं की।
नेहरू की कांग्रेस पार्टी भी संविधान की भावना का असम्मान करने की अपराधी है। अब तो केंद्र और अनेक राज्यों में भाजपा की सरकारों ने ये सवाल ज्यादा खतरनाक ढंग से सामने ला दिए हैं, इनके आक्रामक तरीके ने मुझे अपने ब्राह्मण और हिंदू होने में तकलीफ और शर्म महसूस होती है। पता नहीं ये स्वयंभू धर्म के प्रवक्ता कब क्या अमानवीय बातें कह दें? कौन-सा बखेड़ा खड़ा कर दें? कौन-सा फरमान जारी कर दें? कब हमारी आजादी में दखल देते हुए हमें आदेश दें कि अमुक किताब न पढ़ो, यह फिल्म न देखो, यह नाटक न देखो, यह मत पहनो और केवल यही पहनो, केवल शाकाहारी भोजन ही करो, यहां प्रेम न करो, यहां नफरत करो! पता नहीं बंधनों की यह सूची कहां तक जा सकती है?

इसलिए हम सरीखे जिन लोगों का किसी धार्मिक संप्रदाय और जाति में भरोसा नहीं है उन्हें अपने ऊपर थोपे गए धर्म और जाति से इस्तीफा देने का कोई प्रावधान हो, जिससे उन आपराधिक और अमानवीय कृत्यों से हम जुड़े न रहें, जो आए दिन हो रहे हैं और ज्यों-ज्यों अच्छे दिन आएंगे इनमें बढ़ोतरी होती जाएगी।
श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल

 

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