हमारे देश में धीरे-धीरे एलोपैथी चिकित्सा की कमियां उजागर होने के साथ ही लोगों का ध्यान वैकल्पिक चिकित्सा की ओर जाने लगा है। सरकारी प्रयासों के कारण वैकल्पिक चिकित्सा के साथ-साथ वैकल्पिक चिकित्सा शिक्षा का भी प्रसार हुआ और आयुर्वेद, होमियोपैथी, यूनानी, प्राकृतिक, सिद्धा, योग और अन्य देशी चिकित्सा पद्धतियों का विकास होने लगा। आजादी के बाद सरकार ने भी इस शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए राज्य और केंद्रीय स्तर पर प्रयास शुरू किए।

वैकल्पिक चिकित्सा शिक्षा में सबसे ज्यादा सुदृढ़ स्थिति आयुर्वेद, यूनानी, होमियोपैथी और योग शिक्षा की है। इसलिए देश में इन विषयों के महाविद्यालय और विश्वविद्यालय खुलने लगे। विषयों के पाठ्यक्रमों के निर्धारण के लिए केंद्रीय संस्थाएं अस्तित्व में आर्इं। केंद्र सरकार ने विकास के लिए राष्ट्रीय संस्थानों की स्थापना की। राज्य सरकारों ने विश्वविद्यालयों की स्थापना की। गुजरात में आयुर्वेद विश्वविद्यालय, जोधपुर में राजस्थान आयुर्वेद विश्वविधालय जैसी संस्थाएं अस्तित्व में आर्इं। शोध के क्षेत्र में भी केंद्रीय स्तर पर सीसीआरएएस और अन्य संस्थाएं बनीं और तेजी से काम करने लगीं।

खुली अर्थव्यवस्था, शिक्षा के निजीकरण और सरकार की उदारता के कारण बहुत सारी संस्थाएं इस क्षेत्र में काम करने लगीं। नए-नए पाठ्यक्रम बनने लगे और उन्हें लागू किया जाने लगा। लेकिन इसी कारण गुणवत्ता में कमी भी आने लगी। गुणवत्ता में कमी का कारण यह भी रहा कि जिस तेजी से संस्थाएं बनीं, उसी तेजी से मानव संसाधनों का विकास नहीं हो सका। नतीजतन, उच्चस्तरीय अध्ययन, अध्यापन, शोध आदि प्रभावित होने लगे। तेजी से स्नातकोतर संस्थान खोले गए। स्नातक के बाद की पढ़ाई के विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं हो पाए।

इसी प्रकार पीएचडी की गुणवत्ता में भी ह्रास होने लगा। कई कागजी संस्थाएं बन गर्इं। शोध विषयों की बार-बार नकल होने लगी। अध्यापकों की कमी के कारण सेवानिवृत्त अध्यापकों को निजी महाविधालयों ने अनुबंधित करना शुरू किया। फलस्वरूप एक ही अध्यापक एक से अधिक निजी महाविधालयों में सेवा देने लगा। शोध के विद्यार्थियों ने भी इसका फायदा उठाया और तेजी से वैकल्पिक चिकित्सा में एमडी, पीएचडी जैसी डिग्रियां मिलने लगीं और इनके सहारे नौकरियां भी। विद्यार्थियों में भी काम की गंभीरता के बजाय डिग्री पाने की आकांक्षा प्रबल होने लगी। वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों में चिकित्सा की गुणवत्ता भी प्रभावित होने लगी। इन चिकित्सा पद्धतियों में आने वाले रोगी एलोपैथी से थक-हार कर आने लगे। कई चिकित्सा संस्थानों में उच्च पदों पर विवाद के चलते चिकित्सा शिक्षा और शोध प्रभावित होने लगे। कई संस्थानों में उच्च पद खाली हो गए और शोध का कार्य ठप्प-सा हो गया।

कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि वैकल्पिक चिकित्सा के क्षेत्र में गुणवत्ता की आवश्यकता है। कुछ सुझाव दिए जा सकते हैं। मसलन, पूरे देश में स्नातक स्तर पर प्रवेश एक राष्ट्रीय प्रवेश परीक्षा से ही हो। शोध विषयों विषयों का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारण हो और दोहराव को रोकने के लिए एक राष्ट्रीय एजेंसी कायम हो। वैकल्पिक चिकित्सा के लिए एक राष्ट्रीय बोर्ड बनाया जाना चाहिए जो चिकित्सा की मूलभूत आवश्यकताएं और अर्हताएं तय करे। साहित्यिक शोध पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। निजी महाविद्यालयों को अनुमति के मामले में मानव संसाधनों की पूरी पड़ताल हो। वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के समुचित विकास की ओर ध्यान देना आज की आवश्यकता है।
यशवंत कोठारी, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर

 

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