सिनेमा एक बड़ा जनमाध्यम है और समाज का आईना भी। पर आज का सिनेमा व्यवसायीकरण की ऐसी अंधी दौड़ में शामिल है, जो अपने उद्देश्यों और मूल कर्तव्यों से भटक गया है। आज के गाने के बोल परंपरागत गानों को तो पीछे छोड़ ही रहे हैं, एक अजीब प्रकार का कुसंस्कार भी विकसित कर रहे हैं। जैसे ‘रागिनी एमएमएस’ फिल्म का एक गाना ‘चार बोतल वोदका काम मेरा रोज का’ में शराब का खुला समर्थन है। इसकी एक पंक्ति है- ‘सूजी सूजी आंखें मेरी, फिर भी देखो लड़कियों को, कैसे ये निहारें…!’ इस पंक्ति में महिलाओं के प्रति गलत नजरिया है और उन्हें एक उपभोग की वस्तु बताया गया है।
किशोरावस्था में व्यक्ति एक नई दुनिया, नए मनोभावों में प्रवेश कर रहा होता है। इस उम्र में व्यक्ति को यह समझाना मुश्किल होता है कि सिनेमा का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं। जब शक्तिमान धारावाहिक आता था, तब कई बच्चे यह कह कर छत से कूद गए थे कि शक्तिमान बचा लेगा। आज हमारा समाज व्यावसायिक फिल्मों के आगे घुटने टेक चुका है। खुशी के समारोहों में गाने जरूर बजते हैं। पर वह खुशी का पल वहीं तक सीमित रहे। इसके लिए ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित करने की जरूरत है, जो बच्चों को आभासी और वास्तविक दुनिया के अंतर को समझ सके।
दक्षम द्विवेदी, मगांअंहिं विवि, वर्धा
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