संपादकीय ‘योजना और समाज’ (12 मार्च) में ठीक ही कहा गया है कि योजनाओं की सफलता के दावों और वास्तविक परिणामों के बीच गहरी खाई है। सरकारी नीतियों के यथोचित्त पालन और कार्यान्वित करने मे ईमानदार इच्छाशक्ति के अभाव मे अधिकतर नीतियां और योजनाएं एक समयाविधि के बाद विफल हो जाती हैं, क्योंकि बड़ी-बड़ी योजनाओं की सफलता मात्र कागजों पर कार्यान्वित होते हुए दिखा दी जाती है। कभी-कभी तो लगता है कि समाज हित के लिए योजनाओं की व्यावहारिक सफलता की अनिवार्यता से ज्यादा घोषणाओं के सहारे सरकारें अपनी सफलता का झूठा दंभ भर कर जनता को भ्रमित करती हैं। अनेक उदाहरण हैं।

इसलिए सबसे जरूरी है कि किसी भी योजना की सफलता-विफलता के कारणों की समुचित समीक्षा की जाए और संलिप्त लोगों को इसका जवाबदेह माना जाए। योजनाओं के सिर्फ नाम बदलकर (‘लाडली’ के स्थान पर ‘सुकन्या समृद्धि योजना’, ‘योजना आयोग’ को ‘नीति आयोग’ कर देना) विकास का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। सिर्फ योजनाओं की घोषणाएं जनता को राहत नहीं, आहत ही करती रहेंगी।
विभा ठाकुर, रोहिणी, दिल्ली

 

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