अरविंद मोहन ने अपने लेख ‘बीमा विदेशीकरण की बेचैनी क्यों’ (5 जनवरी) में वाजिब उवाल उठाए हैं कि सरकार को बीमा क्षेत्र में विदेशीकरण की इतनी हड़बड़ी क्यों है। जबकि 1956 से पहले जब देश में बीमा क्षेत्र पूरी तरह विदेशी कंपनियों के हाथ में था, पालिसीधारकों की जमाओं को हड़प रहा था और उनके वाजिब दावों को ठुकराता रहा था। मोदी सरकार बीमा और मेडिकल उपकरण के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आगे बढ़ाने और कोयला के क्षेत्र में नीलामी के जरिए निजी क्षेत्र को प्रवेश देने की हड़बड़ी में संवैधानिक मान्यताओं को धता बता रही है। संसद सत्र के खत्म होते ही इसके दूसरे दिन अध्यादेश लाने के निहितार्थ क्या हैं? इतना ही नहीं, इसके दो दिन बाद किसानों की जमीन अवाप्ति के लिए भूमि अवाप्ति कानून 2013 जो एक साल पहले ही संसद में सर्वसम्मति से पारित हुआ था और जिसमें भाजपा ने पूरा समर्थन किया था, को बदलने के लिए अध्यादेश लाने की इतनी जल्दी क्या थी?
अगर ये इतने जरूरी थे, तो क्या सरकार संसद सत्र को बढ़ा नहीं सकती थी? अगर ये इतने आवश्यक थे तो वह राज्यसभा में जारी गतिरोध खत्म भी कर सकती थी। लेकिन यहीं दाल में कुछ काला है। जिन कानूनों को मोदी सरकार बदलना चाहती है, संसद में उनका भारी विरोध है। इसलिए अध्यादेश जारी करो और संसद में लाकर हल्ले में पारित करवा लो। जानेमाने न्यायविद माननीय राजेंद्र सच्चर ने माननीय राष्ट्रपति से अनुरोध किया है कि वे इसे मंजूरी न दें। पूर्व न्यायाधीश सच्चर ने इन अध्यादेशों को गैर-कानूनी बताते हुए कहा कि इन अध्यादेशों को संसद सत्र के खत्म होने के दूसरे ही दिन मंत्रिमंडल में यह कह कर मंजूरी ली गई है कि संसद में सत्र के दौरान उनको पारित नहीं किया जा सका। उन्होंने कहा कि अगर इतना ही जरूरी था तो संसद सत्र बढ़ा कर इनकी मंजूरी प्राप्त की जा सकती थी। उन्होंने अध्यादेश के संबंध में देश की शीर्ष अदालत के 1987 के फैसले की याद दिलाते हुए कहा कि ‘अध्यादेश का अधिकार कार्रवाई करने के आपात अधिकार की प्रवृत्ति वाला है। राजनीतिक मकसद से इसे बिगाड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती।’
मोदी सरकार को बीमा और कोयला बिल को पारित न होने पर अध्यादेश लाकर इन्हें देश पर थोपने की इतनी हड़बड़ी क्यों है? क्या वे 26 जनवरी के मुख्य अतिथि ओबामा को तोहफा देने के लिए देश-हित और संसदीय मान्यताओं को ठुकराने में गणतंत्र की शान समझते हैं। इस देश की नीतियों को क्या हम अमेरिका या पश्चिमी देशों और उनकी कंपनियों के लिए देश की आत्मनिर्भर जरूरतों की चिंता किए बिना यों ही बदल देंगे? जापान, चीन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया के राष्ट्राध्यक्षों के साथ समझौतों के हल्ले बहुत सुनाई दिए। ओबामा के साथ खूब पर्यटन भी किया, पर अभी एक नागरिक ने सूचना के अधिकार के तहत विदेश मंत्रालय से मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान हुए समझौतों की जानकारी मांगी, तो जवाब मिला कि इस दौरान कोई समझौता ही नहीं हुआ।
विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने से देश में पचास हजार करोड़ रुपए का निवेश होने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। जिससे सच्चाई कोसों दूर है।
रामचंद्र शर्मा, तरुछाया नगर, जयपुर
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