महाभारत के अश्व को कोई नहीं पकड़ सका। लेकिन 2015 में भारत के बेलगाम घोड़े के जीन को एक आम ने अवाम की मदद से कस दिया है। 1789 में शुरू फ्रांस की क्रांति से निकला पूंजीवादी नारा ‘स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा’ आज भी अपनी पूर्णता को तरस रहा है। दरअसल, चंद के मुनाफा को समर्पित पूंजीवाद का लक्ष्य कभी भी ‘सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय’ हो ही नहीं सकता, अन्यथा उन्नत पूंजीवादी मुल्कों में कब का रामराज्य आ गया होता। वर्तमान पूंजीवादी लोकतंत्र के दौर में किसी भी नई राजनीतिक व्यवस्था का आगाज आतंक द्वारा नहीं, बल्कि सार्वत्रिक मतदान द्वारा ही हो सकता है। क्योंकि पूंजीवादी राज्य से बड़ा आतंकी कोई दूसरा नहीं हो सकता!
सरकार पूंजीपति वर्ग के सामान्य हितों की देखभाल करने वाली समिति भर होती है- इस बाबत अंबानी बंधुओं के तकरार के समय भारत के वित्तमंत्री का मुंबई जाकर मेल-मिलाप कराने की घटना को याद किया जा सकता है। मोदी
अंबानी-अदानी के मार्फत आम आदमी तक पहुंचना चाहते हैं तो ‘आप’ आम की महक से उन्हें बेहोश करना चाहती है! दोनों एक ही आर्थिक सिक्के के दो पहलू हैं और इस बार उनमें द्वंद्वात्मक एकता कार्यक्रमों के स्तर और क्रियान्वयन के रफ्तार के रास्ते हो जाएगा। मोदी तो नई आर्थिकी पेश नहीं कर सके हैं। इसी आर्थिकी के तहत सुधार के कई कदम अरविंद उठा कर अवाम को राहत पहुंचा सकते हैं! मोदी की तरह अरविंद भी भ्रष्टाचार दूर नहीं कर सकते। मोदी की हार में मोदी के अनुशासन से उपजा बाबू वर्ग का असंतोष भी एक प्रमुख कारण रहा है। भ्रष्टाचार व्यवस्था जनित है, यह निजी मसला नहीं है। हमें जरूरत पर आधारित सहकारिता आर्थिकी पर गौर करना होगा।
चुनाव प्रणाली ज्यादा जनवादी हो सके, इस पर गंभीर विमर्श की जरूरत है। भौतिक मुद्दों पर विमर्श के बजाय भावनात्मक मुद्दों में उलझाने की कोशिश सत्ता-वर्ग कर रहा है ताकि उनकी नाकामियां उजागर न हों।
रोहित रमण, पटना विवि, पटना
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