‘पीके’ फिल्म पर इन दिनों विवाद बढ़ता जा रहा है। आलोचकों/ दर्शकों का एक वर्ग ऐसा है, जो इस फिल्म की प्रशंसा इसलिए कर रहा है, क्योंकि उसे इसमें रूढ़िग्रस्त समाज की बखिया उधेड़ने की कला नजर आ रही है। दूसरा वर्ग इस फिल्म के प्रदर्शन से नाराज इसलिए है, क्योंकि उसे अपने धर्म की आस्थाएं इस फिल्म द्वारा आहत होती दिख रही हैं। फिल्म देखने के बाद यह जरूर महसूस होता है कि फिल्म में अंधविश्वासों और धार्मिक पाखंडों पर चोट तो की गई है, मगर चोट करने के अनुपात में फर्क है। फिल्म कहती है जो डरता है वह मंदिर जाता है। यानी डर के मारे ही व्यक्ति पुजारियों, मौलवियों, बाबाओं, पादरियों आदि की शरण में जाता है। लेकिन जो लाखों की तादाद में लोग हज करने जाते हैं, वे क्या सब डरे हुए लोग हैं? दुर्गम कंदराओं को लांघ कर प्रभु-दर्शन करने वाले श्रद्धालु डरपोक हैं? मस्जिद में पांच वक्त की नमाज पढ़ने वाला खुदा का बंदा डरपोक है? सुबह-शाम गुरद्वारे जाने वाला भगत डरपोक है? चर्च जाने वाला आस्तिक डरपोक है? अगर नहीं है तो फिर मंदिर जाने वाला ही डरपोक?
ऐसा कहा जा रहा है कि ‘पीके’ फिल्म किसी भी धर्म या मजहब के खिलाफ नहीं है। यह फिल्म पाखंडी मठाधीशों और धर्म के नाम पर दुकानें चलाने या व्यवसाय करने वालों के काले कारनामों को उजागर करने वाली फिल्म है। अगर ऐसा है तो धर्म के अर्थ-अनर्थ का मर्म समझने/ समझाने के लिए शास्त्रार्थ केवल हिंदू बाबा के साथ ही क्यों? अन्य धर्म-गुरुओं या बाबाओं को भी इस शास्त्रार्थ में शामिल कर उनके विचारों को सामने रखा जा सकता था ताकि धर्म की वैविध्यपूर्ण, साझी और बहुआयामी व्याख्या का उद्घाटन हो जाता।
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर
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