मेरा जुड़ाव पिछले दो दशक से स्वैच्छिक क्षेत्र से रहा है। शायद इसलिए ‘हम औरों जैसे नहीं हैं’ या ‘हम सबसे अलग हैं’ जैसे दावे मैंने जितना राजनीतिक दलों के नेताओं और प्रवक्ताओं के मुंह से सुने हैं, उससे ज्यादा स्वैच्छिक संस्थाओं के संचालकों के मुंह से सुनता आया हूं। अक्सर इस तरह की बातों पर हंसी आती है और सोचता हूं कि दुनिया में हर प्राणी भी तो अपने में न्यारा ही होता है। कांग्रेसी देशवासियों को बताते रहे हैं कि उनकी पार्टी सवा सौ साल पुरानी है और भारत की आजादी की लड़ाई में उसके लोगों का कितना बड़ा योगदान और बलिदान रहा। उन्हें कौन समझा सका कि तब की कांग्रेस और अब की कांग्रेस में जमीन-आसमान का अंतर है। लेकिन उसके नेतृत्व को अतीत में झांकना चाहिए कि कैसे तब के नेताओं की एक अपील पर देशभर के लोग आंदोलन में कूद पड़ते थे और आज उसकी ऐसी दुर्गति क्यों हुई है? इसी तरह भाजपा भी खुद को औरों से अलग साबित करने के लिए आंतरिक लोकतंत्र और अनुशासन की डींग मारती रही है, लेकिन सब जानते हैं कि ये हाथी के दांत से जयादा कुछ नहीं।
लेकिन आम आदमी पार्टी की स्थिति इस मायने में भिन्न रही कि इसके नेताओं ने लोगों से जब कहा कि उनकी पार्टी सबसे अलग है, जबकि कांग्रेस और भाजपा वाले तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं तो जनता ने उनका यकीन कर लिया। हाल के वर्षों में ‘आप’ से जितनी ज्यादा उम्मीदें दिल्ली ही नहीं, देश के अन्य प्रदेशों और देश से बाहर रह रहे लोगों ने की हैं उतनी किसी अन्य पार्टी से कभी नहीं कीं। पहली बार 2013 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ने वाली इस पार्टी ने अट्ठाईस सीटें जीत कर सबको चकित किया और केजरीवाल के इस्तीफे से उपजी घोर नाराजगी और देश में चल रही मोदी लहर के बावजूद 2015 के विधानसभा चुनाव में 70 में से 67 सीटें इस नवोदित पार्टी को सौंप कर एक इतिहास ही रच डाला। किसकी बदौलत?
पौड़ी गढ़वाल के उफरेंखाल में जल संरक्षण का सराहनीय काम करने वाले सच्चिदानंद भारती ने एक बार मुझे कच्ची सड़क पर लकड़ी से जमीन कुरेद कर समझाया कि ‘1’ के आगे शून्य बढ़ाते जाएं तो संख्या बड़ी होती जाती है, लेकिन तभी तक जब तक कि एक की संख्या वहां है। एक की संख्या के हटते ही चाहे कितने ही शून्य हों, संख्या जीरो रह जाती है। उन्होंने कहा था कि वह 1 वास्तव में जनता है। जीत वाले दिन केजरीवाल ने अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए बार-बार कहा था कि ‘दोस्तो, मैं हाथ जोड़कर विनती करता हूं कि घमंड कभी मत करना, जनता की सेवा करना।’ लेकिन जीत के इतने कम दिनों में पार्टी में जिस तरह आंतरिक लड़ाई, गुटबाजी और फूट खुल कर सामने आ रही है वह न केवल बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि उन दिल्लीवासियों और देशवासियों के साथ सरासर धोखा है जिन्होंने उस पर इतना ज्यादा यकीन किया।
पार्टी के भीतर क्या हो रहा है यह भीतर के लोग जानें, लेकिन जो मूलभूत सिद्धांत पार्टी ने तय किए थे उन पर उसे कायम रहना और दिखना चाहिए। एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत भी महत्त्वपूर्ण है। बेशक पार्टी को मिली भारी सफलता के पीछे केजरीवाल का करिश्माई व्यक्तित्व होगा, लेकिन लोकतंत्र में कोई भी राजनीतिक दल ‘वन मैन शो’ कैसे हो सकता है? फिर चुनाव में महीनों अपना पसीना बहाने वाले कार्यकर्ताओं को कैसे भुलाया जा सकता है? दिग्विजय सिंह की पुरानी टिप्पणी ‘न लेखा न बही, जो केजरीवाल कहे वही सही’ पर भी गौर करना होगा।
योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण अपने-अपने क्षेत्र के ख्याति प्राप्त लोग हैं। ये एक बड़े मकसद से केजरीवाल के साथ जुड़े होंगे और ये आप केसंस्थापकों में हैं। दल के कामकाज के तरीकों पर उनके प्रश्न या आपत्ति के कारण उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देना, वह भी अपमानजनक ढंग से, उचित नहीं कहा जा सकता। अच्छा तो यह होता कि केजरीवाल उनके प्रश्नों और आपत्तियों पर उनके साथ संवाद करते, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इससे एक नवोदित पार्टी, जो करोड़ों भारतीयों के लिए उम्मीद की एक किरण बन कर उदित हुई, अस्ताचल की ओर प्रयाण करती दिख रही है।
कमल कुमार जोशी, अल्मोड़ा
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