क्या हम इतने असहिष्णु हो गए हैं कि छोटी-छोटी बातों को तिल का ताड़ बना दे रहे हैं? क्या फिल्म पीके का विरोध धर्म के झंडाबरदारों द्वारा खुद को प्रचारित करने की एक कोशिश है या फिर वास्तव में हिंदू धर्म इतना सहिष्णु है कि वह हर बार अपने धर्म के बारे में कही जाने वाली बातों को पचा लेता है। यह चर्चा का विषय है। फिल्म पीके के विरोध में जगह-जगह तोड़-फोड़, सिनेमाघरों में ताले जड़ना शुरू हो गया है। क्यों हर बार बहुसंख्यक समुदाय ही विरोध करता है, क्या इनसे इतर अन्य धर्म, समुदाय, समाज के लोग जज्बाती नहींं होते? क्या उनकी धर्म के प्रति आस्था नहीं होती? क्या उनकी भावनाएं नहीं होतीं? फिर वे तो तोड़-फोड़ नहीं कर रहे, सिनेमाघरों में ताले नहीं जड़ रहे!
फिल्म पीके को लेकर एक धर्म के वर्ग विशेष की आपत्ति है कि अन्य धर्मों की तुलना में उसके धर्म का ज्यादा मखौल उड़ाया गया है। हो सकता है, कुछ लोग ऐसा मानते हों, क्योंकि सबका अपना नजरिया होता और कौन किस बात को कैसे लेता है यह उस पर निर्भर है।
लेकिन कहते हैं कि साहित्य के साथ सिनेमा भी वही दिखाता है, जो समाज में घटित हो रहा हो। तो फिर इस फिल्म के छोटे-छोटे दृश्यों के बाजाय पूरे संदेश को देखने की जरूरत है। फिल्म में उन्हीं अंधविश्वासों से परदा उठाने की कोशिश की गई है, जिसके बैनर तले धर्म के नाम पर कुछ पाखंडी अपनी दुकान चालने में लगे हैं। इसमें हर्ज क्या है? ऐसे लोगों का पर्दाफाश होना ही चाहिए।
कई ऐसे सवाल हैं, जो मन को कचोट रहे हैं। क्या जिनकी भावनाएं आहत हुई हैं वही आस्तिक हैं। वही मंदिर-मस्जिद गुरद्वारा जाते हैं, वही पूजा-अर्चना करते हैं। और जो ईश्वर-अल्लाह नहींं करते, जो अगरबत्ती-धूप नहीं जलाते वे नास्तिक हैं? ये दावे तो खोखले हैं।
फिल्म सेंसर बोर्ड भी सरकार का हिस्सा है, लेकिन फिल्म सेंसर बोर्ड का दोहरा रवैया भी परेशान करता है। डर्टी पिक्चर में बेहतरीन अभिनय के लिए विद्या बालन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया, लेकिन बोर्ड ने उसी फिल्म के टेलीविजन पर प्रसारण का समय रात ग्यारह बजे के बाद रखा। तर्क था- बच्चे बिगड़ जाएंगे। इससे हास्यास्पद और क्या हो सकता है। क्या बच्चे तब नहीं बिगड़ते जब द्विअर्थी संवादों वाले धारावाहिक- बिग बॉस, इमोशनल अत्याचार आदि को दिखाया जाता है, जिनमें अश्लीलता की पराकाष्ठा होती है। रोक तो इस पर भी लगनी चाहिए। आखिर सेंसर बोर्ड बच्चों को देखने से कहां-कहां रोकेगा! सेंसर बोर्ड बिग बॉस जैसे धारावाहिक पर तो रोक की कोई बात नहीं करता, लेकिन राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म के लिए अजीबो-गरीब तर्क रखता है। सेंसर बोर्ड को भी अपने दोहरे रवैए में बदलाव की जरूरत है।
फिलहाल फिल्म पीके के साथ जो हो रहा है वह आने वाले दिनों के लिए एक खतरनाक संकेत है। अगर हम हर छोटी-छोटी बातों को लेकर हाथों में लाठी-डंडे लिए सड़कों पर आ जाएंगे, अराजकता का माहौल पैदा करने लगेंगे, तो हो सकता है कि कल को हर व्यक्ति, समुदाय, वर्ग विशेष हर छोटी-छोटी बात पर छोटे-छोटे गुटों में बंट कर समाज में अव्यवस्था पैदा करने लगे।
नितेश त्रिपाठी, गोपालगंज, बिहार
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