आखिरकार दिल्ली में सुनामी आ गई। जो टक्कर कांटे की दिख रही थी, वह मुकाबला-विहीन हो गई। अराजक, भगोड़ा और नक्सल के ठप्पे ने ‘बदनसीब’ का साथ दिया और दिल्ली विपक्ष मुक्त बन गई। दिल्ली ने देश के मूड के साथ न जाकर यह जबरदस्त तरीके से चेताया है कि उसकी अपनी राह और आवाज है। यह भी कि दिल्ली किसी को किस्मत के भरोसे परोसी हुई थाली के रूप में नहीं मिलती है। सत्ता के लिए जमीन पर हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है, केवल किसी की छवि को ध्वस्त करने से वह नहीं मिलती। इसके लिए बातें नहीं ‘विजन’ साफ होना चाहिए।

दिल्ली में हुए इकतरफा सफाई अभियान में इनकी मेहनत से अधिक उनकी मेहनत का योगदान रहा। इसीलिए जहां यह ‘डबल’ से अधिक हुई, वहीं वह ‘बबल’ साबित हुई। इनकी झाडू में उनकी झाड़ू भी मिल गई। जीतने वाले जहां बहुत पहले से राजधानी की मुख्य समस्याओं को झाड़ने का दम भर रहे थे, वहीं विपक्ष ने लगातार असल मुद्दों पर झाडू मारी। एक आदमी चुनाव का एजेंडा बना रहा था और दूसरी ओर वे रोज अपनी रणनीतियां बदल रहे थे। दिल्ली के महाभारत में दंभ और अहंकारयुक्त अठारह अक्षौहिणी सेना एक निहत्थे को घेरने में जब जुटी तो पूरी जनता उसके साथ खड़ी हो गई। जैसे-तैसे दिल्ली को हथियाने वाले, बदलाव करने की जिद वाले हथियारों से हार गए। पिछली बार दिल्ली संशय भरी थी, अबकी बार चौकन्नी और संकल्पित।

जनादेश आ गया है। कुर्सी पहले से अधिक वजनी हो गई है क्योंकि उसके साथ कई वायदे भी मुफ्त में लटके हुए हैं। बहुमत पाने से अधिक जहमत उसे बनाए रखने में होती है। नई सुबह आती है तो रात जाने की खुशी होती है पर अंधेरे के लौटने का अंदेशा भी खत्म नहीं होता। चुनाव जीतने की चुनौती से पार पाने वालों से सत्ता और सरकार कितना शीर्षासन कराती है, यह जल्द ही अहसास हो जाएगा।

फिलहाल, दिल्ली की फिजा में जीत की खुमारी है और हारने वालों के लिए यह संदेश भी कि वह किसी लहर में नहीं बहती। जरूरत पड़ने पर वह खुद सुनामी बन सकती है। दिल्ली के माथे पर सबके लिए संदेश लटके हैं। आखिरी जीत उसी की होगी, जो इन संदेशों को ठीक से पढ़ पाता है।

संतोष त्रिवेदी, खिड़की विस्तार, दिल्ली

 

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