आठ मार्च को भारत सहित सभी देशों में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1975 से इसकी शुरुआत की थी। अमेरिका में तो यह 1909 में शुरू हो गया था। रूस इसे 1917 में अपनाया। पच्चीस देशो में तो इस दिन सार्वजनिक अवकाश रहता है। चीन में महिलाओं की छुट्टी होती है। अमेरिका, महिलाओं के नाम पर साल में छह दिन छुट्टी देता है। इतना होते हुए भी सबकुछ औपचारिक ही लग रहा है। थोड़े-बहुत बदलाव के साथ ही, आज भी महिलाओं की बड़ी आबादी लाचार है, बराबरी के लिए संघर्षरत हैं। कार्यस्थलों पर इन्हें पुरुष सहकर्मियों की तुलना में कम मेहनताना दिया जाता है। राजनीति में, लंबे संघर्ष के बाद वोट देने का अधिकार तो मिल गया, मगर अनेक देशों में पुरुष अभिभावक के संरक्षण में उसे काम करना पड़ता है। घर में और बाहर भी यौन शोषण की घटनाएं जारी हैं। परिवार में गैरबराबरी का दंश झेल रही हैं। कई समाजों में बेटों को अब भी बेटियों की तुलना में तरजीह देने का रिवाज जारी है। पुरुष की तुलना में शारीरिक शक्ति में बर्चस्व होने का यह मतलब कतई नहीं है कि महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाए। इन्हें महज उपभोग का वस्तु समझा जाए। इनका स्थान केवल रसोई और बच्चे संभालने तक ही समिति नहीं है। ये हर वो काम कर सकती हैं जो एक पुरुष करता है। महिलाएं पुरुषों से हमेशा से आगे थीं, आगे हैं और आगे रहेंगी।
’जंग बहादुर सिंह, जमशेदपुर
नेताओं का व्यवहार
हाल में भाजपा के एक सांसद और विधायक के बीच जूतम-पैजार का जो वीडियो वायरल हुआ, वह बहुत ही शर्मनाक है। यह घटना बताती है कि हमारे जनप्रतिनिधि ऐसा कर किस प्रकार का संदेश दे रहे हैं। भाजपा सांसद ने अपनी ही पार्टी के विधायक को बैठक के दौरान जिस तरह से जूतों से पीटा और पलटवार में विधायक ने सांसद को चांटे मारे, उससे पार्टी की तो छवि धूमिल हुई ही, जनप्रतिनिधियों के व्यवहार पर सवाल खड़े हो गए हैं। हालांकि ऐसी घटनाएं जब-तब देखने में आती हैं। सदनों के भीतर भी और बाहर भी। राजनीति कितनी दोषपूर्ण हो चुकी है कि यह घटना इसका प्रमाण है।
’शशांक वार्ष्णेय, दिल्ली विवि