महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे गायब रहे। लेकिन फिर भी जागरूक मतदाता अपना कर्तव्य नहीं भूले और मतदान के लिए लंबी-लंबी कतारें लगी रहीं। प्रत्यक्ष रूप से यह सही लग रहा है कि भारी मतदान हमारे लोकतंत्र की सुदृढ़ता और समृद्धता का परिचायक है। लेकिन जब स्थानीय मुद्दे ही गायब रहें, स्थानीय मुद्दों पर चुनाव ही न हो तो चुने गए विधायकों की सफलता, असफलता का आकलन किस आधार पर किया जा सकेगा, यह बड़ा सवाल है।

जहां तक कांग्रेस की शिकायत का प्रश्न है कि भाजपा विधानसभा के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे उभार कर जनता को बरगला रही है, यह बेबुनियाद और गलत आरोप है। चुनाव में मुख्य ध्येय होता है, जनता का मत प्राप्त करना। अगर राष्ट्रीय मुद्दे चुनाव मे उठाना गलत है तो चुनाव आयोग इस पर कार्रवाई करेगा। कांग्रेस तो गलती न करती और स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़ती, लेकिन उसने भी ऐसा नहीं किया। इसीलिए कहते हैं- ‘पर उपदेश कुशल बहु तेरे।’
’अरुण कुमार त्रिपाठी, लखनऊ

लोकतंत्र के सामने

भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसमें संविधान सर्वोपरि है। भारत के संविधान ने अपने समय के लंबे इम्तिहान को पार करते हुए धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, न्याय, स्वतंत्रता और भाईचारे जैसे आदर्शों के साथ एक मजबूत लोकतंत्र स्थापित किया है। लेकिन आज हकीकत यह है कि भारत हर दिन लोकतांत्रिक आदर्शों से दूर सरकता जा रहा है, संवैधानिक लोकतंत्र की कोई न कोई र्इंट खिसकती जा रही है, लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रख दिया गया है और जातिवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, हिंसा तो जैसे आम बात हो गई है। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के ध्रुवीकरण ने राजनीति की दिशा को मोड़ दिया है। ऐसे में यह लगता है कि संविधान में भाईचारा, धर्मनिरपेक्षता जैसे आदर्श शब्द अर्थविहीन हो गए हैं।

बाबासाहेब डाक्टर भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि जब तक सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र का निर्माण नहीं होता, तब तक संसदीय लोकतंत्र अर्थहीन है। हालात बता रहे हैं कि आज भारत में केवल राजनीतिक लोकतंत्र है, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र नहीं है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि यदि राजनीति इसी तरह चलती रही तो क्या लोकतंत्र खत्म नहीं हो जाएगा? अगर ऐसा हुआ तो उसके लिए जिम्मेदार सिर्फ जनता और विपक्षी दल होंगे, क्योंकि आज जनता और विपक्ष मात्र मजमा बन कर रह गए हैं। विपक्ष अपनी जिम्मेदारी चुनाव लड़ने तक ही समझता है। क्या चुनाव के बाद उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है? आज पार्टियों को मात्र चुनाव जीतने से मतलब रह गया है। चुनाव हारी हुई पार्टी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ रही। लोकतंत्र पर सबसे बड़ा खतरा यही है।
’धर्मेंद्र जांगिड़, दिल्ली विवि