कहा जाता है कि कानून केवल साक्ष्य देखता है। उसकी नजर में अमीर-गरीब, ऊंच-नीच कोई नहीं होता। भारतीय कानून को आंखों पर पट्टी बंधा दिखाया जाता है। इसका मतलब यह है कि कानून किसी की वेशभूषा या अन्य बाहरी चीजों को देखे बिना सबूतों और गवाहों के आधार पर अपना फैसला सुनाता है। लेकिन सलमान खान जैसे रसूख वाले लोगों के लिए कानून की परिभाषा समझ में नहीं आई। ‘हिट एंड रन’ मामले में मुंबई हाई कोर्ट ने उन्हें यह कह कर छोड़ दिया कि अभियोजन पक्ष इस मामले में सलमान खान के खिलाफ सभी आरोपों को संदेह से परे साबित करने में विफल रहे। कोर्ट ने यह भी कहा कि फैसला मीडिया ट्रायल या जनमानस की भावना के आधार पर नहीं लिया जाता।
यह कहना अनुचित नहीं है। लेकिन क्या इससे इस दुनिया से कूच कर चुके नुरुल्ला शरीफ, जिंदगी और मौत से कई माह तक जूझते अब्दुल शेख, मुसलिम शेख, मुन्नू खान और मुहम्मद कलीम को इसी न्याय की दरकार थी? न्यायालय का यह फैसला उनके समक्ष यह प्रश्न भी खड़ा करता है कि क्या इससे उस हादसे में मारे गए और घायल लोगों को न्याय मिल पाया? इस देश में गरीबों को न्याय पाना क्या इतना ही मुश्किल है?
आमतौर पर यह देखा जाता है कि धनी और रसूखदार लोग जटिल कानूनी प्रक्रिया का लाभ लेकर कानून की धज्जियां उड़ाते हैं और जब फैसले की घड़ी आती है तो उन्हें इसी कानून की पेचीदगियों से साफ बच निकलते हैं। रोजमर्रा के जीवन में यह देखने को मिलता है कि एक साधारण जेबकतरे या छोटी-मोटी चोरी करने वालों के साथ किस तरह पुलिस बेरहमी से पेश आती है और सारे मानवाधिकारों को दरकिनार कर उन पर जुल्म ढाया जाता है। लेकिन लाखों करोड़ों के घोटालेबाज नेता हों या अफसर, महंगे वकीलों को खड़ा कर कानून से ही पेच निकाल कर साफ बच निकलते हैं।
सवाल है कि आखिर इस घटना में जब सलमान दोषी नहीं हैं तो दोष किसका है? उस सड़क पर सो रहे गरीबी की मार झेल रहे लोगों का या उस ड्राईवर का जिसने कुछ पैसों के लिए सलमान के दोष को अपने माथे लेने में कोई गुरेज नहीं किया या फिर उस व्यवस्था का, जिसने ऐसे लोगों को फुटपाथ पर इस तरह की मौत मरने के लिए छोड़ दिया? अदालत के इस फैसले से सलमान को नया जीवनदान भले मिल गया हो, लेकिन इसी फैसले ने उन बेगुनाहों को निराश किया है। उन्हें आज भी न्याय की दरकार है।
’अशोक कुमार, तेघड़ा, बेगूसराय