ओड़िशा के दाना मांझी की खबर हो, बुराड़ी में करुणा पर कैंची से हमला हो, मध्यप्रदेश में जगदीश भील द्वारा अपनी पत्नी का अंतिम संस्कार कूड़े के ढेर में करना हो, रांची में मुन्नी देवी को एक माह से फर्श पर खाना परोसा जाना रहा हो या कालाहांडी में चार विधवा बेटियों द्वारा अपनी मां की चिता में घर की छत की लकड़ियां लगाना हो, ये घटनाएं इंगित करती हैं कि हमारे भीतर लेशमात्र भी मानवता शेष नहीं है। ये घटनाएं खबर नहीं बनतीं यदि स्थानीय लोग इन अभागों की मदद करते। पर हमने तो हर बात का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने में पीएचडी कर रखी है। क्या इन घटनाओं के लिए भी प्रथमदृष्ट्या सरकार जिम्मेदार है? क्या हम पशुप्रवृत्ति के लोगों की कोई समाज के प्रति जिम्मेदारी नहीं है? क्या हमारी जिम्मेदारी इतनी भर है कि हरेक घटना के बाद घड़ियाली आंसू बहा दें अथवा बेचारा या बेसहारा जैसे संबोधन दे कर अपना पल्ला छुड़ा लें?
’ललित मोहन बेलवाल, गौलापार, नैनीताल