आखिर महापुरुष कैसे किसी एक के हो सकते हैं या नहीं हो सकते हैं? चाहे नेहरू हों या और कोई नेता, अगर देश के प्रति उनका योगदान है तो क्यों न उनके प्रति कृतज्ञ हुआ जाए? राजनीतिक लड़ाई यकीनन विचारधारा की हो सकती है, लेकिन अपने-अपने दौर में अपने-अपने महापुरुष गढ़ना कहां तक ठीक होगा? बीते दो साल में नेहरू-गांधी परिवार पर काफी तीखे हमले हुए हैं। कई भाजपा शासित राज्यों के पाठ्यक्रमों से इन महापुरुषों के नाम भी हटाए गए हैं। लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि पंडित नेहरू किसी परिवार के बजाय देश के प्रधानमंत्री थे और किसी भी राजनीतिक दल से ज्यादा उन पर देश का हक है। महापुरुषों के प्रति यही सोच उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी। वैसे भी किसी महापुरुष के दौर, उसकी नीतियों और प्रभाव का आकलन करने का हक किसे होना चाहिए? इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों और समाजशास्त्रियों को या फिर विरोधी राजनीतिक दलों को जो शायद इसे सिर्फ सियासी नजरिए से देख पाएंगे!

अपने-अपने महापुरुषों को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए राजनीतिक दल अन्य महापुरुषों के चरित्र और उनके देश के लिए किए गए बलिदान और इसकी प्रगति में दिए योगदान पर भी सवालिया निशान खड़े कर देते हैं। पिछले दिनों सुभाषचंद्र बोस के जीवन से संबंधित फाइलें सार्वजनिक करने के बाद नेहरू पर तमाम आरोप लगे। वहीं संसद सत्र के दौरान राहुल गांधी ने सावरकर पर भी तीखे आरोप लगाए थे। किसी भी व्यक्ति को महापुरुष इसलिए कहा जाता है कि उसका जीवन लोगों के लिए पे्ररणा बना। उसके देश के प्रति किए गए कामों को सराहा जाए न कि राजनीतिक दल उसका इस्तेमाल वोट बैंक की राजनीति के लिए करें। किसी अफसर ने अगर सोशल साइट्स पर नेहरू की तारीफ कर दी तो उसमें सरकार को आंखें तरेरने की क्या जरूरत पड़ गई? जिस सिविल सर्विस नियम 1968 को सोशल साइट्स पर नेहरू की तारीफ करने वाले अफसर के खिलाफ कार्रवाई का आधार बनाया गया, वह भी उस दौर का बना नियम है जब देश में न तो कंप्यूटर ठीक से था, न इंटरनेट और न सोशल साइट्स। तो फिर ऐसे पुराने नियम को अभी तक बदला क्यों नहीं गया?

अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार क्या अफसर को नहीं होता? अगर है, तो फिर पूर्व बड़वानी कलेक्टर गंगवार पर कार्रवाई कहां तक जायज है? इस तरह के मामले विकास के मुद्दों को प्रभावित करने और नई राजनीतिक जंग शुरू करने के लिए आग में घी की तरह काम करते हैं। इस जंग में किसी का भला नहीं होता है सिवाय राजनीतिक दलों के। इसलिए बजाय महापुरुषों के नाम पर राजनीति करने के, आज के राजनेता खुद का आचरण महापुरुषों की तरह बनाएं तो बेहतर होगा।
’हितेश एन शर्मा, भोपाल्