एक खास विचारधारा वाले लोगों द्वारा कांग्रेस पर अक्सर परिवारवाद का आरोप लगाया जाता रहा है। देखा जाए तो लोकतंत्र में निर्णय जनता के हाथ में होते हैं। ‘नेहरू के बाद कौन?’ -यह प्रश्न नेहरू के होते ही जनमानस को उद्वेलित करने लगा था। उनके अचानक निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री हताश देश के लिए आशा बन कर आए। ताशकंद की त्रासदी न घटती तो न जाने कितने लंबे समय तक देश को शास्त्रीजी का सुयोग्य नेतृत्व मिलता। तब कहां रहता परिवारवाद? शास्त्रीजी के निधन पर फिर यह सवाल कि अब कौन! भारत की जनता को क्योंकि नेहरूजी से अथाह प्यार था और उनकी सुशिक्षित बेटी इंदिरा के राजनीतिक संस्कारों और बौद्धिक क्षमताओं पर भरोसा, इसलिए शास्त्रीजी के बाद प्रधानमंत्री होने का गौरव इंदिरा गांधी को मिला।

राजीव गांधी भी स्वेच्छा से राजनीति में कहां आए! इंदिरा गांधी की शहादत से देश में बना भावात्मक माहौल राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने का एकमात्र कारण था। यह निर्णय तर्कसंगत भी नहीं कहा जा सकता था। तब कांग्रेस को एक चुनाव में पराजय का सामना भी करना पड़ा था। हालांकि उससे अगले चुनाव में पार्टी को मिला जनादेश राजीव गांधी के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। इससे पहले कि वे भारत को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से लैस करने के अपने सपनों को साकार होता देख पाते, आतंकी ताकतों ने उन्हें हमसे छीन लिया।
भावाकुल देशवासियों की नजरें अब सोनिया गांधी पर केंद्रित हुर्इं, लेकिन खुद की सीमाओं को समझते हुए और कुछ असहमति के स्वरों को पहचानते हुए सोनियाजी ने वित्तमंत्री डॉ मनमोहन सिंह जैसे सौम्य, सुशिक्षित और सुयोग्य अर्थशास्त्री को प्रधानमंत्री बनाए जाने का एक सही विकल्प प्रस्तुत किया। शिक्षकीय गरिमा से मंडित व्यक्तित्व वाले डॉ मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। तब भी कहां था परिवारवाद? यह भी सच है कि अपराध, भ्रष्टाचार या घोटाले किसी भी स्तर पर होते हों, जवाबदेही प्रधानमंत्री की होती है। अगर वहां आप मात खा गए तो खेल खत्म। वही हुआ और उसका फायदा वे लोग उठा गए जिनकी देश को आजाद कराने, रास्तों का निर्माण करने और देश में एकता-सौहार्द का माहौल बनाए रखने में कभी कोई भूमिका ही नहीं रही।

नेहरू पर कश्मीर समस्या का दोष मढ़ते हुए अमित शाह फरमाते हैं कि कांग्रेसियों को देश को आजाद कराने की जल्दी थी, क्योंकि वे बूढ़े हो रहे थे, इसलिए कश्मीर का मसला अधर में ही लटक गया। शाहजी की गूढ़ ज्ञान की बात से मेरे मन में भी एकाध हल्की-सी बात आ गई। एक तो यह कि अब क्योंकि वे सत्ता में हैं, इसलिए जो जी में आए सो कह सकते हैं। दूसरी यह कि तब नेहरू या अन्य स्वतंत्रता-सेनानी तो बूढ़े हो चुके होंगे या नहीं, हां उनके संघर्ष के साक्षी रहे पुराने लोग, या तो अब इस दुनिया में नहीं हैं या वृद्धावस्था के कारण शायद उनमें इतना दम न हो कि शाहजी की ‘दमदार’ टिप्पणी के जवाब में कुछ कह सकें। हो सकता है, इस शोर में भी कहीं से कोई मंद आवाज सुनाई पड़ जाए।

शोभना विज, पटियाला