राजनीतिक दलों का मुख्य लक्ष्य सत्ताकेंद्रित होता जा रहा है। अलग-अलग दलों के अलग-अलग आकाओं का राजनीतिक पूर्वाग्रह अनावश्यक कटुता का वातावरण उत्पन्न कर रहा है। स्वतंत्रता उपरांत दशक दर दशक राजनीति निरंतर सकारात्मक से नकारात्मकता की ओर बढ़ती गई है। बीते दो-तीन दशकों से तो राजनीति में नकारात्मकता इस हद तक बढ़ गई है कि मतभेदों के स्थान पर मनभेद, व्यक्तिगत रूप से शत्रुवत व्यवहार का कारण बन गए।
राजनीति में नीति और सिद्धांतों की जम कर दुहाई तो दी जाती है, लेकिन व्यावहारिक रूप से राजनीतिज्ञों की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिखाई देता है। राजनेताओं की कथनी और करनी में कहीं कोई सामंजस्य नजर नहीं आता। अनेक अवसरों पर सत्ता संघर्ष का दौर राजनीति में नैतिक मूल्यों के पतन का परिचायक सिद्ध हुआ है। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है।
इन तमाम हालात के चलते देश में अनिश्चितता का वातावरण बनता दिखाई देता है। राजनीतिक नेतृत्व अवश्य अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते राजनीति के शुद्धिकरण की प्रक्रिया में समर्पित है, किंतु विरोधी ताकतें उन्हें निरंतर चुनौती देती जा रही है। राजनीति में मुख्य संकट विश्वास का हो चला है। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के अंतर्गत आम नागरिकों को सवाल करने का हक भी हासिल है, लेकिन जब सवालों का सिलसिला अराजकता की ओर ले जाता हो, तब सतर्क रहने की आवश्यकता है। इन दिनों देश में जिस तरह के हालात बनते दिखाई देते हैं, वे मानस पटल पर चिंता की लकीरें खींचते हुए दिखाई देते हैं।
दरअसल जिन मुद्दों पर हमें गंभीरतापूर्वक ध्यान देने की जरूरत है, वे मुद्दे चर्चा के विषय से ही बाहर हो गए हैं। देश जिस आर्थिक संकट से जूझ रहा है, रोजगार के अवसर निरंतर कम होते जा रहे हैं और आम नागरिक जैसे-तैसे अपना जीवनयापन करने को विवश है। यही नहीं अनगिनत समस्याएं हैं जो मुंह बाए खड़ी हैं। लेकिन समस्या रूपी जाल का जंजाल, एक नए बवाल के सामने बौना बन गया है। इन हालात से उपजी आम नागरिकों की पीड़ा उनके मनोबल को निरंतर तोड़ती ही जा रही है।
समय रहते इसका निदान करना समय की मांग है। अन्यथा बद से बदतर होती स्थिति को तुरंत संभाला नहीं जा सकेगा। बेहतर हो यदि राजनीति में शुचिता और पवित्रता का वह दौर पुन: विकसित किया जाए जो स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में दिखाई देता था।
’राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास