लोकतंत्र में राजनीति एक ऐसा माध्यम है जहां जनकल्याण की भावना के साथ व्यापक जनहित के प्रति अपने मन-वचन-काय की आहुति दी जाती है। आम नागरिकों को प्राप्त निर्वाचन का अधिकार लोकतंत्र की प्राणवायु है। मगर वर्तमान में तमाम विकृतियों के चलते संभ्रांत और प्रबुद्ध समझे जाने वाला एक बड़ा वर्ग राजनीति के प्रति विरक्ति भाव अपनाए हुए है।
यह स्थिति लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा के अनुरूप नहीं कही जा सकती। बावजूद इसके स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में जनमत ने अपने बहुमत के माध्यम से समय-समय पर राजनीतिज्ञों को करारा सबक भी सिखाया है। लेकिन केवल इसी आधार पर राजनीतिक जनजागृति की पूर्णता के प्रति हम आश्वस्त नहीं हो सकते।
मात्र मताधिकार का प्रयोग कर लेने के उपरांत राजनीतिक गतिविधियों के प्रति अनदेखी अंतत: नागरिकों के लिए भारी सिद्ध होती है। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है। दुर्भाग्य से नागरिकों का एक बड़ा वर्ग राजनीति में यथास्थितिवाद को प्रश्रय भी देता रहा है।
इन संदर्भों में जरूरत इस बात की है कि राजनीति के सकारात्मक पक्ष को पुनर्स्थापित करने की दिशा में आवश्यक कदम उठाया जाएं। दरअसल, राजनीति में जब तक शुचिता और पवित्रता का वातावरण निर्मित नहीं कर दिया जाता तब तक राजनीतिक शुद्धि दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं है।
जरूरत इस बात की है कि राजनीति में सेवा और समर्पण के साथ समाजसेवा के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्तित्व राजनीति को सही दिशा देने के लिए आगे आएं। देश के राजनीतिक वातावरण में आमूलचूल परिवर्तन समय की मांग है।
राजेंद्र बज, चंडीगढ़</strong>