पूरे देश में सरकारी और गैर-सरकारी शिक्षण संस्थाएं देश को साक्षर बनाने में संलग्न हैं। कुछ सरकारी शिक्षण संस्थाओं का संचालन केंद्र सरकार के सहयोग से देश के विभिन्न प्रदेशों में किया जाता है, जैसे जवाहर नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल आदि। ऐसी अधिकांश संस्थाएं सीबीएसई से संबद्ध हैं। अगर देखा जाए तो निजी स्कूल, देश को साक्षर बनाने में सरकारों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम कर रहे हैं, पर निजी स्कूलों के साथ प्रदेश के शिक्षा बोर्ड तथा सीबीएसई और सीआईएससीई बोर्ड संबद्धता नियमों में भेदभाव की नीति अपनाते हैं।

मसलन, यह तथ्य किसी से नहीं छुपा है कि देश के कितने केंद्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों में शिक्षकों और अन्य स्टाफ की किल्लत बनी ही रहती है। स्टाफ पूरा न होने पर भी उनकी संबद्धता कभी खतरे में नही पड़ती। इसके विपरित निजी विद्यालय, जो बिना किसी सरकारी आर्थिक मदद के चलते हैं, उनमें अगर स्टाफ पूरा नियुक्त न किया जाए तो बोर्ड उनकी संबद्धता रद्द कर देता है।

इसी तरह विद्यालय में बच्चों की मूलभूत सुविधाओं, जैसे शौचालय, पीने और हाथ धोने के पानी की व्यवस्था, बच्चों के बैठने के लिए डेस्क-बेंच की व्यवस्था जरूरी है। संविदा पर नियुक्त कर्मी पर भी भविष्य निधि लागू है। मगर केंद्रीय विद्यालयों में संविदाकर्मियों का भविष्य निधि अंश जमा करवाना अनिवार्य नहीं होता।

इसी तरह बच्चों की मूलभूत सुविधाएं प्रदान करने के मामले में भी शिक्षा बोर्ड भेदभाव वाला रवैया अपनाते हैं। जबकि सभी सरकारें इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि सरकारी स्कूल सभी बच्चों को शिक्षा देने का भार वहन नहीं कर सकते हैं। अगर निजी स्कूल आर्थिक तंगी के चलते बंद होने लगें तो स्कूली शिक्षा की स्थिति क्या होगी, अनुमान लगाया जा सकता है।

महामारी के दौरान जिस तरह निजी स्कूलों की अर्थव्यवस्था चौपट हुई है, उससे उबरने में लंबा समय लगेगा। ऐसे में भी वे बच्चों को शिक्षित कर सरकार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाए हुए हैं। क्या ऐसे में सरकारों और बोर्डों को निजी स्कूलों के साथ वही रवैया नहीं अख्तियार करना चाहिए, जो वे सरकारी विद्यालयों साथ करते है? नियम तो सभी के लिए समान रूप से लागू होना चाहिए।

राजेंद्र कुमार शर्मा, रेवाड़ी, हरियाणा