अपने देश भारत में लोकतांत्रिक तथा जनकल्याणकारी शासन व्यवस्था है। सरकारें जनता के द्वारा चुनी जाती हैं, ऐसी मान्यता है और सरकार बनाने के सभी व्यायाम इसी सोच तथा प्रक्रिया के अनुरूप किए जाते हैं। एक सभ्य समाज में शिक्षा तथा स्वास्थ्य मनुष्य जाति की दो मूलभूत आवश्यकताएं हैं। अगर कोई भी मनुष्य सही ढंग से शिक्षित हो जाए और पूरी तरह स्वस्थ रहे तो जीवन जीने के लिए बाकी की जरूरतों को वह बहुत हद तक आसानी से पूरा कर लेगा। इस कसौटी के मुताबिक हमें देखना चाहिए कि हमारी लोक कल्याणकारी सरकारें अपनी जनता की इन दो मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए क्या कर रही हैं। हमें यह भी विचार करना चाहिए कि हमारी सरकारें अपने वार्षिक बजट का कितना प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर तथा कितना प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करती हैं।

विडंबना यह है कि इस तरह के प्रश्नों का उत्तर बहुत ही शर्मनाक ढंग से निराशाजनक है। वास्तविकता यही है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद से ही शिक्षा तथा स्वास्थ्य हमारी सरकारों की वरीयता सूची से गायब ही रहे हैं। औपचारिक स्तर पर जो घोषणाएं होती रहीं, जो नारे दिए जाते रहे, उसकी हकीकत हम सब अपने सामने देख रहे हैं। 1950-60 के दशक में हमारी स्कूली तथा विश्वविद्यालयीय शिक्षा में कुछ गुणवत्ता इसलिए थी कि स्वतंत्रता के बाद के प्रारंभिक वर्षों में हमारी राजनीति तथा हमारे राजनेता जनता के प्रति बहुत अधिक उदासीन नहीं हुए थे और पढ़ाने वाले भी आज के पढ़ाने वालों जितना खुद में नहीं सिमटे थे। स्वास्थ्य के महकमे में भी मुझे व्यक्तिगत रूप से याद है कि पहले अनुनय-विनय पर उचित शुल्क लेकर गांव-देहात में भी घर तक डॉक्टर आ जाते थे और मरीज का इलाज करते थे। लेकिन आज क्या दशा है?

यह बात भी सही है कि पहले हमारी शिक्षा तथा स्वास्थ्य प्रणाली तकनीकी रूप से इतनी अधिक विकसित नहीं थी। फिर आखिर क्या हुआ कि जबकि समय के साथ तथा तकनीकी विकास के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य महकमों का स्तर बढ़ना और सुधरना चाहिए था, इसके ठीक उलट आज यह पूरी तरह चरमरा रही दिख रही है और नष्ट होने के कगार पर पहुंच गई है। इसका कारण जानने के लिए हमें सत्तासीन लोगों की नीयत को खंगालना होगा। सत्तासीन तथा सत्ता के लिए संघर्षरत, दोनों श्रेणी के नेता इस बात पर एकमत हैं कि हमें अपने राजभोग के लिए आम जनता को जाहिल बनाए रखना है, क्योंकि अगर आमलोग शिक्षित होकर जागरूक हो गए तो फिर उनकी सत्तासुख भोगने की दुकानें बंद हो जाएंगी।

दूसरी बात यह भी कि नेताओं ने शिक्षा को पूरी तरह मुनाफाखोरी वाले व्यापार में इसलिए परिवर्तित हो जाने दिया है, क्योंकि शिक्षा व्यापार के अमूमन नब्बे फीसद हिस्से पर राजनीति करने वालों का कब्जा है। आप समीक्षा करेंगे तो पाएंगे कि अधिकांश राजनेता तथा पूंजीपति निजी विद्यालय, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय खोल कर बैठे हैं और इस माध्यम से उनको अपनी पूंजी की बदौलत बिना परिश्रम के और बिना समय दिए नियमित रूप से अच्छी आमदनी आ रही है।

इसी से मिलती-जुलती स्थिति स्वास्थ्य महकमे की भी है। शिक्षा तथा स्वास्थ्य महकमे का पूरी तरह व्यवसायीकरण करने में नेता तथा पूंजीपति, इन दोनों ने गठजोड़ ने तय कर लिया है और आम जनता असंगठित रहने के कारण और अपनी नासमझी के कारण और बहुत हद तक औपनिवेशिक मानसिकता के कारण इस गठजोड़ का विरोध नहीं कर पा रही है सवाल है कि ऐसे में क्या होना चाहिए?

’राधा बिहारी ओझा, पटना, बिहार