दुनिया भर में जितने भी नागरिक अधिकारों का हनन होता है, उसमें सत्तारूढ़ सरकार का फैसला तो होता ही है, साथ में उस देश के सेना और पुलिस विभाग का भी सहयोग होता है। यही नहीं, अत्याचार करने में सबसे बड़ी भूमिका उसी की होती है। म्यांमा में इन दिनों जिस तरह से सेना और पुलिस वहां के लोगों का कत्लेआम कर रहे हैं, क्या ऐसी सेना को हम सम्मानित कर सकते हैं? क्या इन पर हमें गर्व होना चाहिए? ये सब आधुनिक विश्व के अभिशाप हैं, जिसमें लोकतंत्र और मनुष्यता लाचार दिख रही है।

हमने पढ़ा है कि किस तरह से प्रथम और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अलग-अलग देशों के सैनिकों के हाथों लाखों नागरिकों का संहार हुआ। महिलाओं का बलात्कार किया गया। आधुनिक काल में कोरिया, वियतनाम और इराक युद्ध के विनाशकारी मंजर को कौन भूल सकता है?

सेना देश की रक्षा करती है, यह सही है। मगर जब सत्ता तानाशाही हो जाए तो म्यांमा की घटना यह साबित कर रही है कि वही सबसे बड़ा अत्याचारी भी साबित हो सकती है।

अगर नहीं होती तो भला किसी लोकतांत्रिक देश को सशस्त्र बलों के पक्ष में और उन्हें बचाने के लिए विशेष शक्ति अधिनियम वाले कानून अलग से बनाने की क्या जरुरत है। अफसोस है कि म्यांमा ने लोकतंत्र से सैन्यराज में कदम रख दिया है।
’जंग बहादुर सिंह, जमशेदपुर, झारखंड</p>