देश के किसी न किसी हिस्से में होते चुनाव पूरे समाज को सभी तरह से प्रभावित करते हैं। आज हर नेता इन चुनावों में अधिक से अधिक खर्च कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता है। इतिहास बताता है कि देश में हुए पहले आम चुनाव में नेताओं को सत्ता प्राप्ति के लिए चुनाव में ज्यादा खर्च नहीं करना पड़ा था। उस समय के नेता अपनी लोकप्रियता और कार्यों की बदौलत ही चुने गए थे।
आजादी के बाद हुए शुरुआती दो-तीन आम चुनावों में दिग्गज उम्मीदवार बैलगाड़ी, साइकिलों और ट्रकों पर अपने चुनाव प्रचार किया करते थे। आम जनता आर्थिक रूप से कमजोर और फटेहाल नेताओं की हर तरह से सहायता कर करती थी। उन दिनों राजनीतिक दल आज की तरह इतनी अधिक संख्या में नहीं थे। चुनाव लड़ने के लिए उन दलों के पास पार्टी कोष के नाम से कोई अधिक पैसा नहीं हुआ करता था। मामूली से चुनाव खर्चे कर नेता सत्ता के गलियारों मे प्रवेश पा जाते थे।
वर्तमान में देश में चुनावों का स्वरूप बदल गया है। किसी भी स्तर के चुनाव हों, वे अत्यधिक खचीर्ले हो गए हैं। पैसे के बल पर चुनाव जीतने वालों और आपराधिक प्रवृत्ति वाले नेताओं ने वर्तमान में लोकतंत्र को बंधक-सा बना लिया है। अब नेता हेलिकाप्टरों या निजी विमानों से सीधे रैलियों मे उतरते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा पार्टी फंड के नाम से करोड़ों रुपए बड़े बड़े उद्योगपतियों से जुटाए जाते हैं। इन्हीं पैसों का सहारा ले चुनावी रैलियों में और आम सभाओं के लिए लाखों की भीड़ जुटाई जाती है।
दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र भारत में चुनाव वर्ष पर्यंत चलने वाले ऐसे उत्सव हैं, जो बेहद ही भव्य और खर्चीले हो गए हैं। इनसे सामान्य प्रशासन के संचालन और रोजमर्रा के कामकाज मे बड़ी बाधाएं आती हैं। सुरक्षा के साथ निर्भयतापूर्वक चुनाव करवाने मे पूरी सरकारी मशीनरी को झोंक दिया जाता है, जिन पर किया गया खर्च आम जनता की जेब को ही हल्का करता है।
खर्चीले चुनावों की वजह से आम मतदाता दिन-प्रतिदिन बढ़ती महंगाई की मार झेलता है। नौकरीपेशा लोगों को इन खर्चों का खामियाजा टैक्स के रूप मे चुका कर देना होता है। लोकतंत्र में चुनावी खर्चों को नियंत्रण करना केवल चुनाव आयोग की जिम्मेदारी नहीं है। राजनीतिक दलों और नेताओं को भी इन खर्चों की सीमा में रखना होगा।
नरेश कानूनगो, बंगलुरु, कर्नाटक