संयम की दरकार
आज के राजनीतिक परिदृश्य में बयानबाजी में शालीनता की उम्मीद धूमिल होती जा रही है। हाल ही में विधानसभा चुनावों के दौरान कुछ ऐसा ही देखने को मिला। जहां कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने प्रधानमंत्री के लिए अपमानजनक शब्द का प्रयोग किया, वहीं चुनाव के आखिरी दौर में प्रधानमंत्री ने खुद कमान संभालते हुए पूर्व प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़ा कर दिया। यह समझ पाना मुश्किल है कि नेताओं को सारे आरोप चुनाव के दौरान ही क्यों याद आते हैं। फिर भी, सर्वोच्च पदों पर बैठे नेताओं से यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वे थोड़ा संयम रखें।
’विशु सिंह, नई दिल्ली
अधर में भविष्य
देश में बेरोजगारी के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। पढ़े-लिखे लोगों मे बेरोजगारी के हालात ये हैं कि चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के पद के लिए प्रबंधन की पढ़ाई करने वाले और इंजीनियरिंग के डिग्रीधारी भी आवेदन करते हैं। रोजगार के मोर्चे पर हालात विस्फोटक होते जा रहे हैं। सरकार को चाहिए कि इस मसले पर वह गंभीरता से विचार करे। घोषित तौर पर सरकारी योजनाएं बहुत हैं, मगर क्या उन पर ईमानदारी से अमल हो पाता है? इसकी जांच करने वाला कोई नहीं। करोड़ों-अरबों रुपए खर्च करने से कुछ नहीं होगा, जब तक जमीनी स्तर पर कोई ठोस नतीजा नहीं सामने आता।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यह समझ बखूबी है और इसी का फायदा उठाते हुए वे कर्मचारियों का शोषण कर रही हैं। कम तनख्वाह में व्यक्ति काम करने के लिए तभी तैयार होता है, जब उसको कहीं और काम मिलने में दिक्कत हो। इसी का फायदा आज निजी कंपनियां उठा रही हैं और लोगों की तनख्वाह लगातार कम होती जा रही है।
आखिर देश के युवा कहां जाएं, क्या करें, जब उनके पास रोजगार के लिए मौके नहीं हैं, समुचित संसाधन नहीं हैं, योजनाए सिर्फ कागजों में सीमित हैं। पहले ही नौकरियों में खाली पदों पर भर्ती पर लगभग रोक लगी हुई है, उस पर बढ़ती बेरोजगारी आग में घी का काम कर रही है। पढ़े-लिखे लोगों की डिग्रियां आज रद््दी हो गई हैं, क्योंकि उन्हें रोजगार नहीं मिलता। सरकार को इस मसले को गंभीरता से लेना चाहिए। नए रोजगारों का सृजन करना जरूरी है। युवा देश का भविष्य है तो वह भविष्य क्यों अधर में लटका रहे?
’शिल्पा जैन सुराणा, वारंगल

राजनय की साख
भारत सरकार को पड़ोसी मित्र देशों के सहयोग के लिए विदेश नीति में सुधार के तहत की गई वित्तीय सहयोग की घोषणाओं पर अमल करना चाहिए। अगर भारत सरकार समय पर उन्हें यह सहायता मुहैया नहीं करा पाती है तो कहीं न कहीं इससे अंतरराष्ट्रीय पटल पर हमारे विदेश संबंध प्रभावित होंगे। भारत में सत्ता परिवर्तन के साथ ही हमारी विदेश नीति भी बदल दी जाती हैं, जबकि चीन में ऐसा नहीं है। भारत को स्थायी और दीर्घकालिक विदेश नीति बनाने पर जोर देना चाहिए, जिससे इस बारे में दुनिया आश्वस्त रहे।
राजनीतिक उलटफेर की शिकार हो रही हमारी विदेश नीति को भारत के पक्ष में बनाए जाने की आवश्यकता है, न कि राजनीतिक दलों के हितों में। बांग्लादेश, म्यांमा, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल और भूटान पर चीन की बढ़ती राजनीतिक और व्यापारिक पकड़ हमारी वर्तमान विदेश नीति के कमजोर होने का तात्कालिक संकेत है। सरकार को समय रहते पड़ोसी देशों के सहयोग के लिए घोषित की गई आर्थिक गलियारों से जुड़ी परियोजनाओं को भी आरंभ कर देना चाहिए। वर्तमान दौर में जब वैश्विक गांव की अवधारणा मूर्त रूप ले रही हो तो ऐसे में अंतरराष्ट्रीय पकड़ को मजबूत करना बेहद अहम होगा।
’रक्षित परमार, उदयपुर, राजस्थान</p>