बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लंबी ऊहापोह के बाद लालू प्रसाद यादव के परिवार के भ्रष्टाचार और बेनामी संपत्ति के आरोपों के मद्देनजर सरकार चलाने में आ रही दिक्कतों के आधार पर त्यागपत्र दे दिया। पहले से लिखी पटकथा अनुसार तत्काल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें बधाई देते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ एकता का संदेश ‘ट्विट’ उनके पुन: मुख्यमंत्री बनने के संकेत भी दे दिए। संसदीय बोर्ड और विधानमंडल की औपचारिकता के बाद भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से नीतीश कुमार फिर बिहार के मुख्यमंत्री बन गए हैं और यह सब उन्होंने बिहार व जनता के हित में किया है!

इस घटनाक्रम ने फिर सिद्ध कर दिया कि विचारधारा, लोकलाज व नैतिकता की आड़ में राजनीति सिर्फ सत्ता व सुविधा का बायस बन गई है। नीतीश कुमार अपने बूते कभी सत्ता शीर्ष पर नहीं पहुंचे, उन्हें हमेशा सहारों की जरूरत रही है। वैचारिक बैसाखी के दो सेट उनके पास तैयार रहते हैं। पहला, भ्रष्टाचार विरोध की साफ छवि व दूसरा, सांप्रदायिकता विरोध की धर्मनिरपेक्ष छवि। इनका वक्त-वक्त पर जरूरत के हिसाब से वे इस्तेमाल करते रहते हैं। भाजपा के सहयोगी के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी की केंद्र सरकार में मंत्री रहने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री बने और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने पर वे भाजपा से अलग हुए थे। जब नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत का विचार लेकर आए थे तो नीतीश कुमार संघ मुक्त भारत के झंडाबरदार बन रहे थे। उनकी महत्त्वाकांक्षाएं हिलोरें मार रही थीं और वे 2019 के विपक्ष के प्रधानमंत्री के प्रत्याशी के रूप में संभवत: खुद को देख रहे थे। आज कांग्रेस कितनी भी कमजोर दिखाई दे रही हो पर उसकी उपस्थिति राष्ट्रीय स्तर पर बनी हुई है और यह अहसास होने पर उन्हें शायद मुख्यमंत्री रहते ही जनता की सेवा करने का विचार ठीक लगा है। इस तरह वे मुख्यमंत्री भी बने रहे और स्वच्छ छवि भी बनी रही। अर्थात एक तीर से दो शिकार।

बिहार की जनता ने महागठबंधन को जनादेश दिया था और उसका सम्मान करते हुए नीतीश कुमार को साहस पूर्वक तेजस्वी यादव से इस्तीफा मांगना चाहिए था। तेजस्वी के इस्तीफा न देने की स्थिति में उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त करना था। उन्हें महागठबंधन विधायक दल की बैठक में अपना पक्ष रखते हुए त्यागपत्र देना चाहिए था। यह एक जोखिम का कदम था जिसमें उनके फिर मुख्यमंत्री बनने की संभावना नहीं थी पर यह निर्णय भ्रष्टाचार व सांप्रदायिकता दोनों के विरुद्ध उनके संघर्ष की प्रतिबद्धता को सिद्ध कर सकता था और एक आदर्श नेता के रूप में उनकी प्रतिष्ठा हो सकती थी। नीतीश कुमार ने यह अवसर गंवाकर सत्ता व स्वार्थ की राजनीति को ही पोषित किया है। लालू यादव चारा घोटाले में आरोपित होने के बावजूद सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष के प्रतीक बने हुए थे लेकिन पुत्र व परिवार मोह में उन्होंने इस पक्ष को भी गहरे आघात दिए हैं। आज राजनीति को सायास सांप्रदायिकता व धर्मनिरपेक्षता के इर्दगिर्द केंद्रित कर दिया गया है और संपूर्ण विपक्ष भी इसकी गिरफ्त में है। सबको यह राजनीति आसान लगती है और जनता के बुनियादी सवालों भूख, गरीबी, कुपोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पर्यावरण, यातायात, सुरक्षा, रोजगार पर न चर्चा होती है न जवाबदेही बनती है। जनोन्मुखी व विचारधारा आधारित राजनीति को अग्रसर करने की पहल जनसंगठनों व जनांदोलनों को ही करनी पड़ेगी।
’सुरेश उपाध्याय, गीता नगर, इंदौर</p>