यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि हम भारतीयों में हास्य बोध कम होता जा रहा है। कॉमेडी के नाम पर अनवरत चलने वाले कार्यक्रमों को आधार माना जाए तो महसूस होता है कि औसत मानसिकता को परिपक्व होने के लिए अभी और समय देने की जरूरत है। देश के दर्जनों चैनलों पर कॉमेडी शोज के हो-हल्ले के बावजूद सामान्य दर्शक हास्य को लेकर असमंजस में ही नजर आता है। ठठाकर हंसने की तलाश अस्सी-नब्बे के दशक के मौलिक कॉमेडी कार्यक्रम ‘ये जो है जिंदगी’, ‘नुक्कड़’, ‘देख भाई देख’ पर जाकर ठहर जाती है। चुनांचे ये ही धारावाहिक कॉमेडी के मापदंड बन गए हैं। ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ या ‘भाभीजी घर हैं’ या कपिल शर्मा की कॉमेडी से अघाये दर्शक अक्सर अस्सी के दशक की यादों में चले जाते हैं।
यहां किसी भी हास्य धारावाहिक की गुणवत्ता को लेकर कोई विरोध नहीं है। प्रश्न देश के औसत नागरिक के हास्य बोध में कमी आने से उत्पन्न समस्या का विकराल हो जाना है। देश के ही मनोचिकित्सकों के एक समूह का मानना है कि जनसंख्या का चालीस फीसद हिस्सा ऐसे मनोविकारों से ग्रस्त है जिन्हें हल्के-फुल्के हास्य से दूर किया जा सकता है। सिनेमा और विज्ञापन जगत में ‘मिरर इमेज थ्योरी’ पर काम किया जाता है। मतलब, जो समाज में हो रहा है सिनेमा उसी को प्रतिबिंबित करता है या सिनेमा देख कर समाज बदल रहा है। हास्य बोध की कमी को भी हम इसी पैमाने पर माप सकते हैं।
सोशल मीडिया की पतीली से चार चावल लेकर अवाम के मिजाज का आकलन किया जा सकता है। यहां हर कोई गुस्से से फटने को तैयार बैठा है। वैसे तो हास्य बोध हमेशा प्रासंगिक है पर आज इसकी जरूरत कुछ ज्यादा ही महसूस हो रही है। देश का वातावरण प्रतिदिन कटु होता जा रहा है। सहनशीलता दुर्लभ होती जा रही है। मर्यादित प्रतिस्पर्धा की जगह महाभारत की तरह बदले की भावना ने ले ली है। महज एक फेसबुक स्टेटस या एक ट्वीट पर लोग आक्रामक हो उठते हैं। इतिहास के गलियारों में ज्यादा दूर तक जाने की आवश्यकता नहीं है। प्रधानमंत्री नेहरू को उनकी कश्मीर नीतियों के लिए कार्टूनिस्ट शंकर ने हांफते हुए गधे के रूप में चित्रित किया था। अगले दिन तीन मूर्ति निवास से शंकर को फोन गया कि ‘क्या मि शंकर एक गधे के साथ चाय पीना पसंद करेंगे?’ हास्य बोध की यह बानगी बेमिसाल है। शंकर के बाद आरके लक्ष्मण ने अपने ब्रश से तमाम राजनीतिक दलों और नेताओं को निशाने पर लिया। तिलमिलाए नेताओं ने कभी उन्हें धमकियां नहीं दीं न ही उनके अखबार पर संकट आया। लक्ष्मण की तरह मारियो मिरांडा और अबू अब्राहम को भी यथेष्ट सम्मान मिला। ये वे लोग थे जिनके कार्टूनों के पात्र बनाने के लिए नेता-अभिनेता लालायित रहते थे। मत-मतांतर होना स्वाभाविक है। अगर किसी ने गधे के लिए वैशाख नंदन शब्द का उपयोग कर लिया तो उसे एक मजाक तक ही रहने देना चाहिए। हरेक ट्वीट पर बवाल नहीं होना चाहिए। सोशल मीडिया दुधारी तलवार है। इससे किसी का शिकार करने में आप खुद भी शिकार हो सकते हैं। रोबर्ट फेरिग्नो ने लिखा भी है ‘कठिन समय से सिर्फ हास्य बोध ही आपको बचा सकता है।’
’रजनीश जैन, शुजालपुर सिटी, मध्यप्रदेश