राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला कोई नई बात नहीं है। अक्सर सत्ता पक्ष और विपक्ष में यह खेल चलता रहता है। मगर इसकी अति तब हो जाती है, जब संसद सत्र के कामकाज में इससे लगातार बाधा उत्पन्न होने लगती है। पिछले लंबे समय से हम देख रहे हैं कि किस तरह से विपक्ष द्वारा संसदीय कामकाज को बाधित करने का प्रयास किया जा रहा है। यह पिछली संसद में भी था और इस संसद में भी जारी है। सत्ता पक्ष को शासन करने का अधिकार होता है। विपक्ष यह बात क्यों भूल जाता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में देश की जनता ने उसे सत्ता नहीं सौंपी। इसलिए बेहतर होगा कि वह संसदीय कामकाज में बिना बाधा पहुंचाए सरकार के साथ कदम मिला कर चले, ताकि जनहित से जुड़ी समस्याओं पर सरकार ठोस रणनीति और योजनाएं लागू कर सके।

गौरतलब है कि बजट सत्र की तिथि घोषित हो गई है। लेकिन जिस तरह से बयानों के बाण दोनों तरफ से चलाए जा रहे हैं, उससे यही लगता है कि इस बार भी सत्र का कामकाज ठप ही होने वाला है। यह बात अलग है कि इस बार के सत्र में रेल बजट और आम बजट दोनों पेश और पारित होंगे, पर अन्य विधायी कार्य के न होने से लगातार तीन सत्रों के बर्बाद होने की आशंका दिख रही है। लेकिन इस बात को मोदी सरकार को भी समझना चाहिए कि उसके पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है, जिसके कारण कांग्रेस कई महत्त्वपूर्ण विधेयकों को पास नहीं होने दे सकती है। इसलिए कुछ भी बोलने से पहले सत्ता पक्ष को भी सोचना चाहिए कि अगर कुछ बयानों से विवाद बढ़ता है तो बेवजह सदन में अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने का विपक्ष को मौका मिल जाएगा।
’शंकर पंडित, आइआइएमसी, नई दिल्ली<br /> प्रकृति के सामने
रम्य रचना के अंतर्गत ज्ञान चतुर्वेदी का लेख (7 फरवरी) पढ़ा। आज तक हमें यही बताया गया था कि निर्जीव वस्तुओं में जीवन नहीं होता, वे मानव जाति की तरह न तो तार्किक होती हैं और न ही संवेदनशील। लेखक ने अपने लेख में जिस तरह अपनी भावनाओं को शिला से जोड़ कर प्रस्तुत किया है, वह काफी मार्मिक लगा। आज का मनुष्य इतना विवेकशील होता जा रहा है कि अपने जीवन के लिए किसी का भी जीवन लेने पर तुल गया है।

मानव जाति का विवेकी होना उसकी प्रगति का सूचक है, लेकिन यह कैसी प्रगति है जो उसे उसके ही अस्त्र से मारने पर अड़ी है। ताज्जुब की बात तो यह है कि मनुष्य इतना विवेकी होने के बाद भी इसे नहीं देख पा रहा है। ज्ञान, ज्ञान का सूचक भी है औैर विनाशक भी। व्यक्ति ज्ञान का उत्पादक भी है और उपभोक्ता भी, आज हम बाजार में हैं और सभी वस्तुओं की कीमत उसकी उपयोगिता के आधार पर अपना लाभ-हानि देखते हुए तय करते हैं। फिर हम प्रकृति की अहमियत को समझने में कैसे चूक जा रहे हैं, यह मूल सवाल अभी भी बना हुआ है।
’दिनेश कुमार, वाराणसी</p>