जो लोग डिजिटल इंडिया की बात करते है उन्हें शायद देश और देश के लोगों की समस्याओं के बारे में पूरी जानकारी नहीं है। शायद सरकार यह भूल गई कि जिन वोटरों के बल पर उसने सत्ता हासिल की है, उनकी पहली जरूरत डिजिटल इंडिया नहीं, बल्कि रोटी और रोजगार है। जहां नलों में पानी सूख जाता है, सड़कों की हालत खस्ता है और लोग शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्याओं से परेशान हैं, वही देश के प्रधानमंत्री डिजिटल इंडिया की बात कर रहे हैं। शायद मोदी भूल जाते हैं कि देश का हर ‘चाय’ बेचने वाला व्यक्ति सेल्फी नहीं ले सकता, क्योंकि उसके पास स्मार्टफोन नहीं है और वह केवल मेहनत में विश्वास रखता है, न कि सेल्फी में। देश का मीडिया और भाजपा सरकार की उपलब्धियां गिनाने में लगे रहते हैं।
विकास हुआ है, लेकिन केवल कागजों पर या फिर कुछ व्यक्ति या वर्ग विशेष का विकास हुआ है। अगर इसको विकास कहें तो कह सकते हैं। देश का विद्यार्थी वर्ग हो या हमेशा मुश्किलों में घिरा किसान, ये जब तक सरकार की नजरों में वोट के लिए खतरा नहीं बन जाते, जब तक सरकार इनकी नहीं सुनती। सरकार शायद ही किसान की परिस्थितियों से परिचित हो। भाजपा सरकार का एक भी नेता किसान की बात क्यों नहीं करता? ऐसा लगता है कि शायद सरकार ने चुनावी फायदों को देख कर ही नीतियां बनाने की ठान ली है। इसीलिए बंगाल, उत्तर प्रदेश की चुनावी हवा को भांपते हुए सरकार ने दो साल में पहली बार ‘किसान फसल बीमा’ योजना की शुरुआत की।
2014 के आम चुनाव में मोदी के भाषण से लगा कि वे मुद्दों की बात करते हैं। इसलिए औरों से बेहतर हैं। लेकिन अब सब भ्रम दूर होते जा रहे हैं। देश की सरकार देशभक्ति की किस परिभाषा से सबको अवगत कराना चाहती है, कोई नहीं जानता, लेकिन इससे यह साबित हो गया कि रोटी-पानी की तरह ही देशभक्ति भी भारत की मूल समस्याओं में से एक है और राजनीति के लिए एक हमेशा जीवित रहना वाला मुद्दा है। देशभक्ति की पहचान किस रूप में की जाएगी, अब यह भी सरकार और शाखाएं तय करेंगी!
देश की आजादी से अब तक राजनीतिक रोटियां सेंकने का चलन है। हर तरफ भ्रष्टाचार की खाई जो शायद ही कभी भर पाए। सरकार भ्रष्टाचार के खात्मे की आशा दिला कर सत्ता में आई थी। लेकिन वह पूरी तरह विफल साबित हुई। ‘कालेधन’ को वापस लाने के बजाय उसको ‘सफेद धन’ बनाने के लिए नई-नई नीतियां बनाई जा रही हैं। ऐसा लगता है कि ललित मोदी और विजय माल्या जैसे लोगों को परोक्ष रूप से सत्ताधारी पार्टी की ओर समर्थन मिल रहा है। मामला कालेधन से जुड़ा हो या स्वास्थ्य से या फिर शिक्षा से, सरकार केवल नीतियों और भाषणों से नहीं चलाई जा सकती। जितना जरूरी नीतियां और योजनाएं बनाना है, उतना ही जरूरी उन नीतियों और योजनाओं को लागू करना भी है। देश के विश्वविद्यालयों में सरकार का दखल बढ़ना और प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान न देना चिंता का विषय है।
’हसन हैदर, जामिया मिल्लिया, दिल्ली</p>