कोरोना विषाणु से हुई महामारी की विभीषिका के महाखेल में बंगाल के चुनावी खेल का मंचन पूरा हुआ। बासठ दिनों के इस सत्ता समर में कई खेल खेले गए जो लोकतांत्रिक इतिहास के पन्नों में बड़े ही रोचक ढंग से जोड़े जाएंगे। इस अद्भुत खेल में कई टीम अलग-अलग किस्म के खेल खेल रही थी, जबकि विरासतीय खेल का सिद्धांत है कि एक खेल के मैदान पर एक बार में एक ही खेल खेला जाए। अज्ञात कारणों से सबसे पहले चुनाव आयोग ने आठ चरणों में खेल की घोषणा करके सबको हैरत में डाल दिया, जबकि कोरोना से बचाव के लिए इसके चरण सीमित किए जा सकते थे।

दूसरे खेल में दल-बदलुओं का थोक भाव में हृदय परिवर्तन हुआ और समर जीतने के लिए रेडीमेड कुशल योद्धाओं ने पलायन कर कीर्तिमान स्थापित कर दिया। खेल के मध्यांतर में कोरोना नियमों के पन्नों पर हस्ताक्षरकर्ताओं ने ही उसे खंडित करते हुए चुनावी रैलियां और रोड-शो करके संक्रमण के सुषुप्त विषाणुओं को आमंत्रित कर दिया। चुनावी सभाओं में उपस्थित भीड़ ने ‘दो गज की दूरी और मास्क है जरूरी’ के मंत्र को तिलांजलि दे दी, क्योंकि उन्हें लगा कि इस खेल में जो गोल दागे जा रहे हैं, उससे प्राप्त विजयश्री के सामने कोरोना विषाणु की कोई औकात नहीं है।

खेल का सबसे चिंताजनक पक्ष रहा कि चुनाव आयोग को क्रोध, आलोचना, आरोप और निष्पक्षता का क्रूर सामना करना पड़ा। ममता दीदी ने अपने दस्तखत से आयोग को तीन चिट्ठी लिखी कि ईवीएम पर उन्हें शक है कि उसमें गड़बड़ी करके मुझे हराने की साजिश हो सकती है। अब जब परिणाम उनके दल के पक्ष में आ गया तो सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इस परिणाम में उनकी सहमति है कि नहीं!

खेल के द्वितीय सत्र में रोमांचक स्थिति हो गई, जब एक संवैधानिक संस्था ने दूसरी संवैधानिक संस्था को कठघरे में ला खड़ा कर दिया और यहां तक कहा कि उस पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत मुकदमा क्यों न चलाया जाए। अब यह कौन पूछे कि देश के सभी स्तर की कचहरियों में चार करोड़ से अधिक लंबित मुकदमों की सांस जो सालों साल से दम तोड़ रही है, उस खेल के लिए कौन जिम्मेदार है।

इस खेल में नैतिक पक्ष यह भी देखा गया कि चुनावी सभा में एक दूसरे के विरुद्ध आरोप प्रत्यारोप के घिनौने और अभद्र छींटे फेंके गए, सारी मयार्दाएं टूटती रहीं, आचार संहिता मलीन होती रहीं, हिंसा अपना तांडव मचाता रहा और जिम्मेदारी की चादर ओढ़े लोग और संस्थाएं धृतराष्ट्रीय मुद्रा में अपनी आंखें चुराते दिखे। अब जबकि चुनावी खेल खत्म हो गया है तो एक दूसरे को अपशब्द, असंसदीय कहने वाले जब एक दूसरे से मिलेंगे तो लगेगा कि खेल में खेली गई कटुता तो मात्र तात्कालिक और अस्थायी थी, जिसमें न तो अब कोई यथार्थ है और न उसका दूरगामी महत्त्व। सारांश यही है कि ‘खेला होबे’ के नेपथ्य में जिसे जितना बन सका, उसने जम कर अपने चौसर पर बिसात रची और जब खेल का समापन हो गया है, भले कोई दल जीत गया हो, लेकिन हर बार की तरह लोकतंत्र अपनी किस्मत पर आठ-आठ आंसू तो बहा रहा है, क्योंकि उसने बंगाल की जनता-जनार्दन के समग्र विकास क्या, आंशिक विकास का सूर्योदय होते अभी तक नहीं देखा है।
’अशोक कुमार, पटना, बिहार