‘अराजकता की हिमायत’ (संपादकीय, 9 मार्च) पढ़ा। जनप्रतिनिधियों के बोल का जनमानस के बीच महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। सामाजिक समरसता और सद्भाव की भूमि जब कराहती है, तब उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने कर्तव्य सिंधु की बूंदों से उसे शीतल करें और भाईचारे की भावना को बनाए रखने की हर कोशिश करें। सामाजिक तानेबाने को तोड़ने एवं अशांति पैदा करने वाले उपद्रवी तत्त्व आज बहुत ही सक्रिय हैं।
फिर जब हमारे जनप्रतिनिधि प्रतिकूल वक्तव्यों से ऐसी घटनाओं में वृद्धि करने की जमीन तैयार करेंगे तो सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर शांति-व्यवस्था की परिणति किस रूप में होगी। पिछले कुछ सालों के दौरान कुछ जनप्रतिनिधियों के बहकावे या फिर घोषित-अघोषित संरक्षण की वजह से भीड़ ने अनेक पदाधिकारियों की निर्मम हत्या कर दी। संसदीय प्रोटोकॉल की अपनी मर्यादा और सीमा निर्धारित है, जिसके विखंडन से समाज में रचनात्मकता की जगह प्रतिशोध और अहितकारी कृत्यों का जन्म होता है। उकसावे से भरे ऐसे बयान को समाज की स्वच्छ धारा के विपरीत माना जाना चाहिए।
प्रशासनिक परिधि में इसे दुर्भाग्यपूर्ण मानते हुए अपने मनोबल और दायित्व पालन में ह्रास नहीं होने देना ही लोक सेवक का मानक कर्तव्य माना गया है। अफसोस की बात यह है कि अब तक इसके ठोस दृष्टांत सामने नहीं आए हैं कि केंद्र या राज्य सरकार अपने ऐसे गैरजिम्मेदार मंत्रियों के वक्तव्यों पर क्या संज्ञान लेती है। यही कारण है कि ऐसे बयान बहादुरों के उत्साह और बोल में वृद्धि होती जा रही है। दिवंगत कपूरी ठाकुर जब 1978 में मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल की प्रथम बैठक में सभी मंत्रियों को अधीनस्थ पदाधिकारियों के साथ शिष्टाचार, सद््भाव, सम्मान प्रदर्शन और संबोधन का पाठ पढ़ाकर मर्यादा पालन का अनुकरणीय उदाहरण पेश किया था। उनके कार्यकाल तक तो यह प्रभावी रहा, लेकिन कालांतर में वर्जनाएं टूटती गर्इं, सम्मान की सीमाएं दरकती गर्इं और आज तो सारी हदें पार हो रही हैं।
सरकारी पदाधिकारियों के कर्तव्य-बिंदु उनकी सेवा संहिता में निरूपित की गए हैं। उनके लिए आचार संहिता में भी दायित्वों की व्याख्या तय है। जनप्रतिनिधि जो सीधे जनता के प्रति उत्तरदायी हैं, उन्हें चिंतित होना स्वाभाविक है कि जनमानस के हित में विकास एवं कल्याण की योजनाएं संबंधित पदाधिकारी ससमय पूरा करें। निश्चित रूप से कुछ पदाधिकारियों की कर्तव्य शिथिलता और उनकी अकर्मण्यता आज विकास की गति में बाधक बनी हुई है। इसके लिए जनप्रतिनिधियों को व्यापक संसदीय अधिकार मिले हुए हैं, जिसके उपयोग से वे शिथिल पदाधिकारियों के विरुद्ध कलम उठा सकते हैं। किसी भी व्यक्ति को किसी को मारने-पीटने का अधिकार या इसकी अनुमति कानून की किताब नहीं देता।
हमारे जनप्रतिनिधि समाज के ऐसे दर्पण हैं जिसमें उनके मतदाता अपनी छवि देखते हैं और उनके व्यक्तित्व में छिपे गुणों को अपने लिए प्रेरक चिह्न मानते हैं। बुनियादी सवाल यही है कि जब कानून के निमार्ता ही विधि के भंजक बनेंगे तो समाज के उपद्रवी शक्तियों को शांति-सौहार्द को तोड़ने से कौन रोक सकेगा। देश के नेताओं को ऐसे बयान के वीर बहादुरों को नियंत्रित रखने का हर संभव प्रयास करना चाहिए, ताकि एक सौ तीस करोड़ जनता को कथनी और करनी में विभेद न महसूस हो।
’अशोक कुमार, पटना, बिहार
दवा की कीमत
हाल ही में देश भर में तीसरा जन औषधि सप्ताह मनाया गया। बाजार में दवा की मनमानी कीमतों से आम जनता को राहत पहुंचाने के लिए 2015 में प्रधानमंत्री जन औषधि परियोजना को शुरू किया गया था। इसके अंतर्गत खोले गए जन औषधि केंद्रों पर आम जनता को बाजार की तुलना में पचास से नब्बे प्रतिशत कम कीमतों पर उतनी ही असर वाली दवाइयां उपलब्ध कराई जाती हैं।
एक आंकड़े के अनुसार वित्तीय वर्ष 2019-20 के दौरान जन औषधि परियोजना के जरिए 433.61 करोड़ रुपए की दवाइयों की बिक्री की गई, जिससे नागरिकों को तकरीबन 2500 करोड़ रुपये की बचत हुई थी। पर भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देश के लिए यह बचत राशि बहुत ही कम है, क्योंकि यहां एक बड़ी आबादी दवाइयों के लिए खुले बाजार की दवा दुकानों पर ही निर्भर है, जहां मनमाने अंकित अधिकतम खुदरा मूल्य पर दवाइयां बेची जाती हैं।
मुश्किल यह है कि दवा ही एक मात्र ऐसी वस्तु है जिसे खरीदते वक्त मोलभाव करने या उसी कीमत पर सवाल उठाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। आज भी आबादी की तुलना वर्तमान में संचालित जन औषधि केंद्रों की संख्या नगण्य है। परियोजना के प्रावधानों के अनुसार जन औषधि केंद्रों पर करीब सात सौ प्रकार की जरूरी औषधियां उपलब्ध कराई जानी चाहिए। पर ज्यादातर जन औषधि केंद्रों में बमुश्किल दो सौ प्रकार की दवाइयां ही मिल पाती हैं।
उपलब्ध दवाइयों में बेहद जरूरी दवाइयां कई बार नहीं होतीं। कुछ जगहों पर चिकित्सक जानबूझ कर नामी कंपनी की दवा रोगियों के लिए लिखते हैं, जिसके कारण व्यक्ति जेनेरिक दवा का लाभ नहीं ले पाता। दवा कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए जानबूझ कर नामी कंपनियों की दवा लिखने वाले चिकित्सकों पर कार्रवाई करने की जरूरत है। जन औषधि को जन-जन तक पहुंचा कर ही आम नागरिक की जेब पर पड़ रहे भारी चिकित्सकीय खर्च के बोझ को कम किया जा सकता है, ताकि व्यक्ति अपनी बचत को किसी उत्पादक कार्य मे निवेश कर देश के विकास में सहभागिता निभाते हुए अपने जीवन स्तर को ऊपर उठा पाने सक्षम हो।
’ऋषभदेव पांडेय, जांजगीर, चांपा, छत्तीसगढ़
नदी का जीवन
दुनिया भर में प्रदूषण जिस रफ्तार में बढ़ता जा रहा है, वह आज की बड़ी समस्या है। इसका सबसे गहरा असर यह पड़ रहा है कि प्रदूषित वातावरण रोग प्रतिरोधक क्षमताओं का नाश कर रहा है। वायु प्रदूषण पर पर्याप्त बातें होती हैं, लेकिन जल प्रदूषण का सवाल छूट जाता है। जबकि जल का प्रदूषण बीमारियों को निमंत्रण देने के साथ ही उसकी शुद्धता को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। ऐसे माहौल में नदियों को पूरी तरह स्वच्छ किए जाने की बेहद जरूरत है।
नदियों में गंदे नालों और उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थों का विलयीकरण राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) के लिए बड़ी चिंता बन कर उभरा है। न्यायाधिकरण ने चिंतित स्वर में सरकार को निर्देश दिया है कि प्रदूषित नदी क्षेत्रों के लिए उचित तंत्र की स्थापना करे जो उस पर प्रभावी निगरानी रख सके। आज बड़ी नदियां प्रदूषित जल और मल तथा अपशिष्ट पदार्थों की निकासी का एक बड़ा स्थान बन गई है। इससे इनका स्वरूप तो विकृत हो ही रहा है, वातावरण भी प्रदूषित हो रहा है। न्यायाधिकरण के निर्देशों की अहमियत को समझते हुए सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिए, ताकि मानव जीवन के अस्तित्व के प्रति बढ़ते खतरे को टाला जा सके।
’अमृतलाल मारू ‘रवि’, दसई, धार, मप्र