राजनीति का भरपूर दोहन करने में सामाजिक की अपेक्षा असामाजिक तत्त्वों की सक्रियता चरम पर है। यह एक ऐसी कटु वास्तविकता है कि नीति और सिद्धांतों की राजनीति का दंभ भरने वाला राजनीतिक नेतृत्व भी इस वास्तविकता को जान कर भी अनजान बना रहता है। लोकतंत्र की राजनीति में नेतृत्व को अपने पाले में खेल रहे हर खिलाड़ी को तवज्जो देना उनकी राजनीतिक विवशता है। एक प्रकार से लोकतंत्र की यह विकृति राजनीति की मान्य परंपरा में मर्ज होती दिखाई देती है। दरअसल, हर एक राजनीतिक दल का शीर्ष नेतृत्व इस तथ्य से भली-भांति अवगत है, लेकिन इसकी शल्य क्रिया के लिए आगे आने को तैयार नहीं है। जनसमर्थन के आधार को कोई भी नेतृत्व खोना नहीं चाहता। चाहे वह जनसमर्थन अराजकता से ही फलित क्यों न हुआ हो?

विडंबना यह है कि स्थापित राजनीतिकों द्वारा उच्च स्तर पर सत्ता का समीकरण बैठाने की गरज से बेमेल गठबंधन समाज में नकारात्मक संदेश देते हैं। येन-केन-प्रकारेण सत्ता के लिए राजनीति का सिलसिला उचित-अनुचित में भेद नहीं करता। यही कारण है कि राजनीति का मूल स्वरूप निरंतर विकृत होता जा रहा है। आमतौर पर देखा गया है कि एक ही दल के अलग-अलग गुट के नेता अपने गुटीय वर्चस्व के चलते शीर्ष नेतृत्व से अपने और समर्थकों के पदों के लिए सौदेबाजी करने से नहीं हिचकते हैं। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अवसर आने पर अपने मान-सम्मान और स्वाभिमान को भी ताक पर रख दिया जाता है। ऐसे में देश-प्रदेश में राजनीतिक हलचल कितने भी तीव्र दिखाई दे लेकिन व्यवहारिक धरातल पर अधिकांश नागरिक स्वयं को असहज अनुभव किया करते हैं।

प्रबुद्ध नागरिक अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाए रखते हैं, लेकिन संगठित होकर विकृतियों के प्रतिकार के लिए आगे नहीं आते। इनकी यही खामोशी कालांतर में राजनीति में व्याप्त विकृतियों के रूप में सामने आती है। व्यवस्था को दोष दिया जाता है, मीडिया को बिकाऊ मान लिया जाता है और राजनीति को विकृतियों का अंबार कहा जाता है। लेकिन इनका निराकरण करने की दिशा में कोई आगे आने को तैयार नहीं होता। यही कारण है कि लोकतंत्र की राजनीति में राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की आपूर्ति राजनीतिक जीवन का उद्देश्य बन कर रह जाती है। इन दिनों राजनीति का स्वरूप इतना विकृत हो चुका है कि इसमें आमूलचूल परिवर्तन का साहस जुटाना नेतृत्व के बस की बात नहीं है। दरअसल, राजनीति में व्याप्त विकृतियों के निदान के लिए सामूहिक प्रयत्न किए जाने चाहिए।

इस स्थिति के चलते राजनीति में अराजकता का कभी न थमने वाला दौर परवान चढ़ने लगता है। इन हालात में देश-प्रदेश में व्याप्त तमाम समस्याओं के निराकरण के प्रयास संभव नहीं हो पाते। समस्याओं का अंबार देश-प्रदेश के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करने में बाधक सिद्ध होता है। लेकिन राजनीतिक उठापटक के दौर में शीर्ष एवं निचले स्तर का नेतृत्व इस ओर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता। दरअसल, जमावट और बनावट की राजनीति के चलते देश प्रदेश की मूलभूत समस्याओं के निराकरण का समय किसके पास है? अधिकांश ऊर्जा और समय सधे हुए को साधे रखने और अनसधे को साध लेने में जाया हो जाता है। इन तमाम संदर्भों में राजनीति का शुद्धिकरण समय की मांग है।
’राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास, मप्र

सम्मान का नजरिया

स्त्रियों को समाज में सम्मानजनक स्थान मिले, यह बहुत आवश्यक है। स्त्रियों से जुड़ी अनेक समस्याएं हैं, जिन पर आज भी विचार किया जाना चाहिए। घरेलू हिंसा, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना, बाल विवाह, दहेज प्रथा, लैंगिक भेदभाव, बलात्कार, कार्यस्थल पर सुरक्षा एवं समान कार्य समान वेतन आदि अनेक ऐसे विषय हैं, जिन पर वर्तमान में कानून तो बने हैं, पर व्यवस्था की लापरवाही के कारण और स्त्रियों के द्वारा सामाजिक एवं पारिवारिक दबाव के चलते शिकायत न करने के कारण इन कानूनों का पूरा लाभ महिलाओं को नहीं मिल पाता है।

पारिवारिक, सामाजिक प्रोत्साहन और सहयोग से ही स्त्रियां अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का खुल कर विरोध एवं शिकायत कर सकेंगी। घर में कार्य करने वाली गृहिणी की मेहनत और कार्य का आकलन आज तक नहीं किया गया है। परिवार के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाली और बिना वेतन के कार्य करने वाली गृहिणी के प्रति भी पुरुषों को अपना नजरिया बदलने की आवश्यकता है।
’ललित महालकरी, इंदौर, मप्र