तकरीबन ढाई दशक से पूंजी के प्रति उदारता बरतने वाली जिन नीतियों पर मौजूदा और पूर्ववर्ती सरकारें चल रही हैं, उसमें ‘साधारण आदमी’ और ‘देश’ के लिए जगह कम है और ‘विदेशी निवेश’ के आगे नतमस्तक बने रहने की फितरत ज्यादा है। लेकिन जनता का ध्यान इस ओर नहीं जाए, इसलिए देश को ‘देशभक्ति’ और ‘देशद्रोह’ के विवाद में उलझाया जा रहा है। जनता को डराया जा रहा है कि वे जो करें, उसे मान लें, वरना देशद्रोह का दंड सहने को तैयार रहे।
दूसरी ओर, सरकार विदेशी निवेश के दावों के बीच आत्मनिर्भर आर्थिक विकास के निकलते जनाजे से शायद संतुष्ट है। कोई वैकल्पिक नीति अपनाए बिना केवल अपने बजटीय घाटे की पूर्ति के लिए सार्वजनिक उपक्रमों से विनिवेश जारी रखना, दरअसल घर फूंक कर तमाशा देखने जैसा ही काम है। फिर सरकार को करना ही क्या है! जो भी करना है, उनके चेहते थैलीशाहों को करना है। सबका इलाज निजीकरण मान लिया गया है। सीधे निजीकरण में दिक्कत यानी ‘जनविरोध’ का ज्यादा सामना करना पड़े तो बजाओ पीपीपी की बंसी!
पिछले बजट की घोषणा के अमल में जनता ‘स्मार्ट’ बने, न बने, लेकिन ‘सिटी’ को स्मार्ट जरूर बनाएंगे। देश के लोगों को उद्योग और व्यापार का सलीका नहीं है, सो अब सलीके से व्यवसाय करने के लिए दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा बनेगा, जिसमें उसके दोनों तरफ का 150-150 किलोमीटर तक क्षेत्र शामिल होगा। वहां कानून का नहीं, उद्योगपतियों और कॉरपोरेटों का राज चलेगा। बताया जा रहा है कि प्रस्तावित डीएमआइसी के लिए सात लाख हेक्टेयर और सौ स्मार्ट सिटी के लिए ब्रिटेन से भी तीन गुणा ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। यह आएगी कहां से? जाहिर है, गांव के किसान से।
जमीन, आजीविका और विस्थापन के दंश की ये परियोजनाएं कहीं गले की फांस न बन जाए। इसलिए भाजपाई सांसद ने जो किसानों की आत्महत्याओं का कारण अभाव नहीं फैशन बताया, वह सोच-समझ कर दिया गया बयान है। सत्ता में बैठे, भारत माता के जयकारे लगा भ्रम फैलाने वाले ये लोग जब किसान के अभाव और बेबसी में जीवन-त्याग के मर्म को नहीं समझ रहे, तो वे उससे जमीन छिनने की पीड़ा को भला क्या समझेंगे!
’रामचंद्र शर्मा, तरूछाया नगर, जयपुर</p>