भयंकर गर्मी के मौसम में आग लगने की दुर्घटनाएं देश में सामान्य नियम बन गई हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी और स्मार्ट सिटी के रूप में पहचाने जाने वाले भोपाल शहर में ठीक सचिवालय के सामने स्थित शासकीय सतपुड़ा भवन में आग लगती है। तीसरी मंजिल से शुरू हुई आग थोड़े समय में पूरे सात मंजिला भवन को अपने आगोश में ले लेती है।

इस अग्निकांड पर काबू पाने के लिए फायर ब्रिगेड से लेकर समूचा प्रशासन, आपातकालीन अमला, सेना और हेलिकाप्टर तक की सेवाएं ली जाती हैं , लेकिन सारी उच्च स्तरीय व्यवस्थाओं के बावजूद सतपुड़ा भवन को होने वाले नुकसान, बेशकीमती फर्नीचर, सैकड़ों एसी और मशीनों को नहीं बचाया जा सका। यह आग क्यों और कैसे लगी यह सब फिलहाल रहस्य के पर्दों में है।

गनीमत यह रही कि इस अग्निकांड में कोई जनहानि नहीं हुई। आरोप और प्रत्यारोपों का दौर अभी जारी है और शायद यह परंपरागत, तुच्छ राजनीति लंबे समय तक चलती रहेगी, लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि भारी भरकम बजट और तमाम अत्याधुनिक सुविधाएं उपलब्ध होने के बावजूद इस प्रकार की भीषण दुर्घटनाएं आखिर जन्म कैसे लेती हैं ।

सतपुड़ा भवन के रखरखाव के लिए जिम्मेदार अमले के पास स्वयं की लापरवाही, गफलत और गंभीर आपराधिक उपेक्षा के अलावा कहने के लिए कुछ नहीं है। सतपुड़ा भवन जैसी विशेष इमारतों और उनमें लगे उपकरणों का निरीक्षण और रखरखाव नियमित रूप से किया जाता है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए एक पूरा प्रशिक्षित विभाग होता है।

अलग से बजट की व्यवस्था होती है। जांच आयोगों का गठन किया जाता है। थोड़े दिन शोर-शराबा होता है और फिर सब कुछ ठंडे बस्ते में। आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक ऐसी दुर्घटना की त्वरित रूप से सूक्ष्म, समुचित और विस्तृत जांच हो। दुर्घटना के लिए जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई हो। अगर जिम्मेदार लोगों को सख्त सजा नहीं दी जाएगी तो सब कुछ इसी तरह चलता रहेगा।
इशरत अली कादरी, भोपाल।

स्थायित्व की दरकार

संपादकीय ‘राहत की दर’ (14 जून) से बड़ी राहत मिली। यह संतोष का ही विषय है कि मई माह में महंगाई की दर थमी और सरकार तथा जनता दोनों ने इससे राहत पाई मगर बड़ा सवाल यही कि जब फिर से महंगाई जोर पकड़ती है और दर क्रमश: ऊंची होती जाती है तब उस समय सरकार उसे रोकने का प्रयास क्यों नहीं करती?

हद से ज्यादा महंगाई जब आम आदमी की हालत खराब कर देती है और लोग शोर मचाते हैं, तब सरकार इस दिशा में पहल शुरू करती है, जो लंबा समय लेती है। नतीजन, लोग महंगाई में पिसते जाते हैं। अच्छा यही हो कि महंगाई को स्थिर करने का प्रयास किया जाए ताकि हर छह माह में सरकार को महंगाई के नाम पर जवाब देने की जरूरत न पड़े। मूल्य नियंत्रण समिति की निरंतर निगरानी ही लोगों को बढ़ती महंगाई से निजात दिला सकती है।
अमृतलाल मारू ‘रवि’, इंदौर।

समाज के विरुद्ध

बिना शादी किए साथ-साथ जीवन गुजारने से संबंधित अजीबोगरीब दास्तानें सामने आती रहती हैं। हालांकि हमारे देश में पश्चिमी देशों की भांति ऐसे सामाजिक मुद्दे और चलन पर शोध अध्ययन कितने होते हैं या हुए और प्रकाश में आए हैं, जिससे सहजीवन की सफलता और विफलता के आंकड़े सामने आ सकें। खबरों से ऐसा लगता है कि सहजीवन में दुश्वारियां ही दुश्वारियां हैं।

इसलिए कि हम आधुनिकता और अंधानुकरण की बारीकियों को समझने में नाकाम हैं। हमारे सामाजिक ढांचे में धर्म, जाति की प्रधानता है, शिक्षा का अभाव है। ऐसा समाज आधुनिकता के वास्तविक मानकों पर सरपट कैसे दौड़ सकता है? लिहाजा सहजीवन में भी तलाक जैसे अनाप-शनाप मांगें उठती हैं। हद तो तब हो जाती है, जब धार्मिक कोण भी सामने आ जाते हैं। जघन्य हत्याएं होती हैं। आखिर सहजीवन का आधार है क्या? प्रेम या निरा भौतिकता?
मुकेश कुमार मनन, पटना।

मणिपुर में हिंसा

मणिपुर में हो रही हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। वहां के हालात बिगड़ते जा रहे हैं। स्थानीय सरकार इस हिंसा को रोकने में नाकाम साबित हो रही है। यही कारण है कि गृहमंत्री एक के बाद एक कदम उठा रहे हैं। वहां के राज्यपाल ने एक शांति समिति गठित की है। यह समिति सामाजिक सद्भाव और भाईचारे को बढ़ावा देने का काम करेगी।

इन सबके बावजूद राज्य में हिंसा जारी है। मणिपुर में मैतेई और कुकी समाज के बीच चल रही हिंसा ने सारी हदें पार कर दी है। वहां अब तक सौ से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। हिंसा ने पूरी तरह सांप्रदायिक रूप धारण कर लिया है। उग्रवाद की आड़ में धर्मांतरण का काम तेजी से चलता रहा। जब तक देश के अन्य हिस्सों में इसका पता चलता तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

केंद्र में बैठी पूर्ववर्ती सरकार ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। पूर्वोत्तर में सेवा और शिक्षा के नाम पर फर्जी एनजीओ चलाकर उग्रवाद और धर्मांतरण की पौध को सींचने का काम किया गया। बहरहाल, अब समय आ चुका है कि राज्य सरकार सभी समुदायों में आपसी विश्वास पैदा करे और सभी की आशंकाएं दूर करे। दोनों समुदाय मिल-बैठकर समाधान निकालें। सभी को लगे कि सरकार उनके खिलाफ नहीं है।
अंकित सोनी, मनावर, धार।

लालच के रिश्ते

हाल ही में इंदौर में एक नवविवाहिता की हत्या ने समाज को विचलित कर दिया। इस घटना के पीछे कारण दहेज बताया जा रहा है। दहेज निषेध अधिनियम 1961 के तहत इसे आपराधिक श्रेणी में रख कर कठोर दंड की व्यवस्था की गई है। बहरहाल, लगभग छह दशक बाद भी इस इस कुप्रथा को भारतीय समाज से समाप्त नहीं किया जा सका।

उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों और कुछ दक्षिणी राज्यों में यह प्रथा आज भी अपने पैर पसारे हुई है। एनसीआरबी की रपट के अनुसार आज भी हर साल लगभग सात हजार मामले दहेज उत्पीड़न के संबध में दर्ज होते हैं, जिनमें लगभग एक तिहाई मामलों में लड़की की मौत हो चुकी होती है। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि समाज के बहुत सारे लोगों में मानसिक संकीर्णता अब भी व्याप्त हैं।
दिनेश शाह, वैढ़न, सिंगरौली।