आजादी मिलने के इतने सालों बाद भी शिक्षा और आर्थिक खुशहाली बढ़ने के बावजूद महिलाओं की दशा उतनी नहीं सुधरी, जितना सुधरनी चाहिए। आज एक महिला देश की प्रधानमंत्री बन सकती है, मंत्री और मुख्यमंत्री बन सकती है, न्यायाधीश, आइएएस, आइपीएस अफसर बन सकती है, लेकिन दावे से यह नहीं कहा जा सकता है कि समाज के पुरुष महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने को तैयार हैं। महिला आरक्षण विधेयक जो आज तक पारित नहीं हुआ है, इस संदर्भ में देखा जा सकता है।

अर्थव्यवस्था, विज्ञान, तकनीक और उद्योग के क्षेत्रों में मिली उपलब्धियां आमतौर पर शहरी इलाकों तक सीमित होकर रह गई हैं। गांवों और छोटे कस्बों तक इस बदलाव की सिर्फ चर्चा ही पहुंच पाई है।
महिलाओं के प्रति समाज, कानून और पुलिस का रवैया चिंताजनक है। महिलाओं पर होने वाले अत्याचार हर साल बढ़ते जा रहे हैं, इसका मुख्य कारण है कानून का अपर्याप्त होना। केवल कानून से अपने आप किसी समस्या का हल नहीं हो सकता है। आखिर क्या वजह है कि पहले कानून कम होने के बावजूद महिलाएं आज के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित थीं।

आज बलात्कार, अपहरण, शोषण, दहेज हत्या आदि घटनाएं पहले से कहीं अधिक हैं। पुलिस का महिलाओं के प्रति रवैया कोई अच्छा नहीं है। बल्कि पुलिस स्त्रियों पर अत्याचार के लिए बदनाम है। थानों में स्त्रियों से बलात्कार की खबरें भी आती रहती हैं। यहां तक कि राजधानी दिल्ली भी इससे बची हुई नहीं है। महिलाओं के प्रति पुलिस का दृष्टिकोण बदलने के लिए यह सुझाव दिया जाता है कि ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को पुलिस में भर्ती किया जाए। यह एक अलग मुद्दा है और इससे स्थिति कुछ सुधर सकती है। लेकिन यह व्यापक समस्या का समाधान नहीं है।

हमारा समाज हर मामले में पुरुष का ही साथ देता है। महिलाओं के खिलाफ होने वाले तमाम अपराध दरअसल, कमजोर वर्गों की स्त्रियों को दबाने और उनसे अधिकार छीनने के रूप में प्रयोग किए जाते रहे हैं। महिला की निम्न सामाजिक स्थिति के कारण कन्या भ्रूणहत्या का संगठित अपराध जारी है। हजार कानून बना दिए जाएं, जब तक स्त्री के प्रति समाज का दृष्टिकोण नहीं बदलेगा, तब तक महिलाओं पर अत्याचार नहीं रुकेगा। इसलिए जब तक पुरुषवादी सामाजिक पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए समाज और सरकार पहल नहीं करेंगे, तब तक बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती।
’पूजा सिंह, आइआइएमसी, नई दिल्ली